Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 127
________________ ११८ रयणसार हे मित्र ! धर्म का मूल सम्यक्त्व है, यही जीव का सार है। सम्यक्त्व सहित जीव घोर नरक में भी सुख का अनुभव करता है। सुखी है और वहाँ मे निकल तीर्थकर पदवी को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करता है। जबकि सम्बक्त्व रहित स्वर्ग का निवास भी ठीक नहीं है। जो विमानवासी हूँ थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय । तहँ से चय थावर तन धरे, यो परिवर्तन पूरे करे ।। सम्यक्त्व रहित जीव वैमानिक देवों में भी दुखी है/दुख का ही अनुभव करता है और वहाँ से चयकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक स्थावरों में उत्पत्र होता है। ___ उभयदृष्टि परिणाम किं बहुणा वयणेण दु, सव्वं दुक्खेव सम्मत्त विणा । सम्मत्तेण विजुत्तं सव्वं सोक्खव जाण खु ।।१५४।। अन्वयार्थ ( किं बहुणा वयणेण दु ) बहुत कहने से/ अधिक कथन से क्या लाभ ? ( सम्मत्त विणा ) सम्यक्त्व बिना ( सत्वं दुक्खेव ) सब दुख रूप ही है। और ( सम्मत्तेण विजुत्तं ) सम्यक्त्व सहित ( सव्वं सोक्नेव ) सब सुख रूप ही है--यह ( खु ) निश्चय ( जाणं ) जानो। अर्थ-- [ हे भव्यात्माओं ! ] अधिक बोलने से क्या लाभ है ? संसार में सम्यक्त्व के बिना सब दुःख रूप ही है और सम्यक्त्व सहित सब सुख रूप ही है, यह निश्चय से जानो । एक बालक अपने पिता के साथ एक विशाल मेले में घूमने के लिए गया। पिता की अंगुली पकड़कर व मेले की प्रत्येक वस्तु को देखता हुआ सुख का अनुभव कर रहा था। कहीं खिलौने थे, कहीं सुन्दर चित्रकला, कहीं मिठाइयाँ । देखते-देखते उसका हाथ पिता की अंगुली से छूट गया। बस, अब तो बालक का रूप ही बदल गया 1 जो चीजें, वस्तुएँ उसे सुखप्रद थीं, उसके लिए वे ही वस्तुएँ दुख का कारण बन गईं। वह फूट-फूटकर

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