Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 110
________________ रयणसार १०१ अनादिकालीन दुर्वासना मल-मुत्त- घडत्व चिरं वासिय दुव्वासणं ण मुञ्चेइ | पक्खालिय सम्पत्तजलो य गाण मियेण पुण्णो वि ।। १३४ ।। अन्वयार्थ – यह जीव ( सम्मत्त - जलो) सम्यक्त्व रूपी जल से ( पक्खालिय ) प्रक्षालित करने पर (य) और ( णाण-मियेण ) ज्ञानामृत से ( पुष्णो वि ) पूर्ण होने पर भी ( चिरं वासिय ) चिरकाल से दुर्गंधित/ दुर्वासित ( मल-मुत्त- घडव्व ) मल-मूत्र से भरे घड़े के समान ( दुव्वासणं ) दुर्वासना को ( " मुञ्चेइ ) नहीं छोड़ता है। अर्थ - जिस प्रकार चिरकाल से दुर्गंधित मल-मूत्र से भरे घड़े को पानी से अनेक बार धोने पर भी, घड़े की दुर्गंध नहीं जाती, उसी प्रकार अनादिकाल से मिथ्यात्वरूपी मल से दुर्वासित इस जीव की दुर्वासना सम्प्रवत्त्वरूपी जल से धोने पर व ज्ञान से पूर्ण होने पर भी नहीं छूटती । अन्तरात्मा के आत्मा का अनुभव करते हुए भी शरीरादि परद्रव्यों में अभेद भ्रांति हो जाती हैं। पहली बहिरात्मावस्था में होने वाले भ्रांति के संस्कारवश वह पुनः भ्रान्ति को प्राप्त हो जाता है। जैसा कि कहा है. जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि । -- पूर्व विभ्रमसंस्काराद् भ्रांति भूयोऽपि गच्छति ॥ ४५ ॥ 7 अर्थात् यद्यपि अन्तरात्मा अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है, उसी का अनुभव करता है। शरीरादि परद्रव्यों से इसे भिन्न अनुभव भी करता है। फिर भी बहिरात्मा - अवस्था के चिरकालीन संस्कारवश / संस्कारों के जागृत हो उठने के कारण कभी-कभी बाह्य पदार्थों में उसे एकत्व का भ्रम हो जाता है । इसी से अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि के ज्ञान चेतना के साथ कदाचित् कर्मचेतना व कदाचित् कर्मफलचेतना का भी सद्भाव माना गया। सम्यग्दृष्टि के भोग में अनासक्ति - सम्माइट्ठी णाणी अक्खाण सुहं कहं पि अणु- हवइ । केणावि पण परिहरणं, वाहीण-विणास णटुं भेसज्जं । । १३५ ।। -

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