Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 111
________________ रयणसार अन्वयार्थ - ( सम्माइड्डी गाणी ) सम्यग्दृष्टि ज्ञानी ( कहं पि ) किसी प्रकार / अनिच्छापूर्वक / अनासक्ति से ( अवखाण-सुहं अणु-हवइ ) इन्द्रियों के सुख का अनुभव करता है/ भोग करता है; क्योंकि ( वाहीणविणास पठ्ठे ) रोग को दूर करने के लिए ( सज्ज ) औषधि को ( केणावि ) किसी के द्वारा (ण परिहरणं ) छोड़ी नहीं जाती । १०२ अर्थ- जिस प्रकार रोग दूर करने के लिए किसी के भी द्वारा औषधि को कोई नही छोड़ता, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि ज्ञानी अनिच्छापूर्वक / अनासक्ति में इन्द्रिय सुखो का अनुभव करते हैं। । आचार्य कहते हैं जैसे कमल - पत्र कीच से लिप्त नहीं होता वैसे ही सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों की भक्तिरूपी सम्यक्त्व के कारण इन्द्रिय सुखों में लिप्त नहीं होता। जैसा कि कहा हैधात्री बालाऽसती नाथपद्मिनीदलवारिवत् दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन राज्यं न पाप भाक् ॥ you सामा सम्यग्दृष्टि जीव धात्रीबाल, असतीनाथ, कमलिनी पत्र पर स्थित जल और जली हुई रस्सी के समान राज्य का उपयोग करता हुआ भी पापी नहीं होता । जिस प्रकार धाय बालक का लाल-पालन करती हुई भी उसे अपना बालक नहीं मानती है, जिस प्रकार पुरुष अपनी दुश्चरित्रा स्त्री से संबंध रखता हुआ भी उससे विरक्त रहता है, जिस प्रकार कमलिनी के पत्र पर पड़ा हुआ पानी उस पर रहता हुआ भी उससे भिन्न रहता है और जली हुई रस्सी जिस प्रकार ऊपर से भांज को लिये हुए दिखती है परन्तु भीतर से अत्यंत निर्बल रहती हैं, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रिय सुखों का उपभोग करता हुआ भी अन्तरंग में आसक्त नहीं होता, अतः पापी नहीं कहलाता । परमात्मावस्था प्राप्ति का उपाय - किं बहुणा हो तजि बहि-रम्प सरुवाणि सयल भावाणि । भजि मज्झिम परमप्पा वत्थु सरूवाणि भावाणि ।। १३६ । । अन्वयार्थ - ( हो ) अहो / हे भव्य ! (किं बहुणा ) बहुत कहने

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142