Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 112
________________ रयणसार १०३ से क्या लाभ ? ( बहिरम्प - सरूवाणि ) बहिरात्म स्वरूप ( सयल भावाणि तजि ) सकल भावों को छोड़ तथा ( मज्झिम परमप्पा ) मध्यमात्मा परमात्मा के ( वत्यु- सरुवाणि ) वस्तु स्वरूप ( भावाणि ) भावों को ( भजि ) भज | अर्थ - हे भव्यात्मन् ! अधिक कहने से क्या लाभ ? [ संक्षेप में ] तुम बहिरात्म स्वरूप समस्त विभाव / विकार भावों को छोड़ो और मध्यमात्मा व परमात्मा के वस्तुस्वरूप भावो को भजो । आत्मा की तीन अवस्थाएँ हैं, उनमें अन्तरात्मा के उपाय द्वारा परमात्मा को अंगीकार करें, अपनावें और बहिरात्मा को छोड़ें। कहा भी है — बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ||४|| स.श. ।। तात्पर्य यह हैं कि आत्मा की इन तीन अवस्थाओं में जिनकी परद्रव्य में आत्म- बुद्धिरूप बहिरात्मावस्था हो रही हैं, उनको प्रथम ही सम्यक्त्व प्राप्त कर विपरीताभिनिवेशमय बहिरात्मावस्था का त्याग करना चाहिये और मोक्षमार्ग की साधक अन्तरात्मावस्था में स्थिर होकर आत्मा की स्वाभाविक वीतराग - मयी परमात्मावस्था को व्यक्त करने का उपाय करना चाहिये । दुख का कारण बहिरात्म भाव चउगइ- संसार-गमण-कारण- भूयाणि दुक्ख हेऊणी । ताणि हवे बहि- रप्पा वत्थु सरुवाणि भाषाणि ।। १३७१। अन्वयार्थ - ( बहि-रप्पा ) बहिरात्मा जीव के ( वत्यु[-सरुवाणि भावाणि ) वस्तुस्वरूप सम्बन्धी जो भाव हैं ( ताणि ) वे सब ( चउगइसंसार-गमण-कारण भूयाणि) चतुर्गति रूप संसार परिभ्रमण के कारण हैं; और ( दुक्ख हेऊणी ) दुःख के कारण ( हवे ) होते हैं । अर्थ - बहिरात्मा जीव के वस्तुस्वरूप संबंधी जो भाव हैं वे सब चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण के कारण हैं और दुख के हेतु होते हैं।

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