Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 93
________________ ८४ रयणसार अर्थ-जो साधु होकर/दिगम्बर मुनि अवस्था धारण करके भी क्रोध से, कलह से, याचना/माँग-माँग करके, संक्लेश से, रौद्र/क्रूर परिणामों से, तथा रुष्ट होकर अर्थात् असंतुष्ट होकर आहार ग्रहण करता है, वह साधु है क्या ? नहीं । वह तो व्यन्तर है। आहार शुद्धि संदेश दिव्युत्तरण-सरिच्छं जाणिच्चाहो धरेइ जड़ सुद्धो । तत्तायस-पिंडसम, भिक्खू तुह पाणिगद-पिंडं ।। ११३।। अन्वयार्थ--( अहो ) हे ( भिक्खू ) भिक्षुक/मुने ( जइ ) यदि ( तुह पाणिगद पिंड ) तुम्हारे हाथों में गया/हाथ पर रखा पिंड ( तत्तायस-पिंड-समं सुद्धो ) तपाये हुए लोहे के पिंड के समान शुद्ध है तो उसे ( दिव्युत्तरण-सरिच्छं ) दिव्य नौका के समान ( जाणिच्चा ) जानकर ( धरेइ ) ग्रहण कर । अर्थ- हे मुने ! यदि तुम्हारे/तेरे हाथ पर/करपात्र में रखा गया आहार पिंड तपाये हुए लोहे के पिंड के समान शुद्ध हो तो उसे संसाररूपी समुद्र से तिरने के लिए दिव्य नौका समान समझकर ग्रहण करो। यहाँ "लोहपिंडवत् शुद्ध" शब्द आचार्यश्री ने दिया है जिसका तात्पर्य है कि जिस प्रकार तप्तायमान लोहपिंड के पास कोई जीव-जन्तु नहीं आता तथा धूली आदि कण भी जलकर नष्ट हो जाते है वह इसी कारण शुद्ध कहलाता है उसी प्रकार मल दोषों से रहित, जीव-जन्तु रहित आहार शुद्ध है साधुओं के लिए ग्राह्य है । कहा भी है - छियालीस दोष बिना, सुकुल श्रावकतने घर असन को । लें तप बढ़ावन हेतु नहीं तन पोषते तजि रसन को छ.ढा. || मुनिराज का आहार जो ४६ दोषों से रहित है, संसार-सागर तरने को नौकावत् है४६ दोष– १६ उद्गम दोष--ये दोष दाता के आश्रित होते हैं । १६ उत्पादन दोष—ये दोष पात्र के आश्रित होते हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142