Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 68
________________ रयणसार हे भव्यात्माओं ! यदि कर्मों का समूल क्षय करने की भावना है तो निज शुद्धात्मा की रुचि करो। मात्र बाह्य लिंग कर्म भय का हेतु नहीं कम्म ण खवेइ जो परब्रह्म ण जाणेइ सम्म- उम्मुक्को । अत्थ ण तत्थ ण जीवो, लिंगं घेतूण किं करेइ ।। ८३।। अन्वयार्थ ( जो ) जो ( परब्रह्म ) आत्मा परमात्मा को ( ण जाणे इ ) नहीं जानता है (सम्म उम्मुक्को ) वह सम्यक्त्व से रहित है ( कम्मं ) कर्मों का ( ण खवेइ ) क्षय नहीं करता ( जीवो ) ऐसा जीव ( अत्थ–ण तत्थ-ण) न यहाँ का है और न वहाँ का ( लिंगं ) मात्र लिंग को ( घेत्तूण ) ग्रहण करके ( किं ) क्या ( करेइ ) करता है ? अर्थ-जो लिंग धारण करके भी आत्मा-परमात्मा को नहीं जानता हैं वह सम्यक्त्व से विहीन है। कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं है । ऐसा जीव न यहाँ का है न वहाँ का अर्थात् न वह गृहस्थ रहा न साधु रहा । वह लिंग मात्र ग्रहण करके क्या कर सकता है । जो जीव लिंग धारण करके भी आत्मा परमात्मा के भेद को नहीं जानता है, वह सम्यग्दर्शन से च्युत है। सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य अच्छी तरह कठिन तपश्चरण करते हुए हजार करोड़ वर्षों में भी रत्नत्रय स्वरूप बोधि का अर्जन नहीं प्राप्त कर सकते । आचार्य देव कुन्दकुन्द स्वामी अपने ही प्रसिद्ध ग्रन्थ दर्शनप्राभृत में इसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं जे दंसणेसु भट्ठा, णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य । एदे भविभट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ।। ८ ।। द.प्रा. जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ज्ञान से भ्रष्ट हैं और चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्टों में विशिष्ट भ्रष्ट हैं, अर्थात् अत्यंत भ्रष्ट हैं तथा अन्य मनुष्यों को भी भ्रष्ट कर देते हैं। अत: ऐसा जीव लिंग धारण करके भी १: बह्म पाठ भी है [ब] प्रति ।

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