Book Title: Rayansar
Author(s): Kundkundacharya, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 45
________________ रयणसार संसार के उत्तमोत्तम सुखों को प्राप्त करता हुआ मुक्तिधाम के अतीन्द्रिय, शाश्वत सुरखों को प्राप्त करता है। अवसर्पिणीकाल में भी धर्म्यध्यान होता है अज्ज-वसप्पिणि भरहे, धामझाणं पमाद-रहिलो नि ! होदि त्ति जिणुद्दिटुं, ण हु मण्णइ सो हु कुदिट्ठिी ।। ५६ ।। अन्वयार्थ-( भरहे ) भरतक्षेत्र में ( अज्ज-वसप्पिणि ) आज/ इस वर्तमान अवसर्पिणी काल में ( धम्मज्झाणं ) धर्म्यध्यान ( पमादरहिदो त्ति ) प्रमाद-रहित होता है ( त्ति ) ऐसा ( जिणुट्ठि ) जिनेन्द्रदेव ने कहा है । जो ऐसा ( ण हु ) नहीं मानता है ( सो ) वह ( हु ) निश्चय से ( कुदिट्ठी ) मिथ्यादृष्टि है । अर्थ—'भरतक्षेत्र में आज भी इस अवसर्पिणी काल में जीवों के घHध्यान प्रमाद रहित होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है । जो ऐसा नहीं मानता है वह निश्चय से मिथ्यादृष्टि है। ___ इस दुःखम हुण्डावसर्पिणी विषम काल में भी धर्मात्मा गृहस्थ व मुनियों के धर्म्यध्यान का निषेध नहीं है। हाँ ! इस काल में शुक्लध्यान का निषेध हैं। इसी बात को मोक्षप्राभृत ग्रंथ में कुन्दकुन्द देव लिखते हैं भरहे दुस्सम-काले धम्मज्झाणं हवइ साहुस्स । तं अप्प-सहाव-सहिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।। भरतक्षेत्र में आत्मस्वभाव में स्थित मुनियों को इस दुस्सम काल में भी धर्म्यध्यान होता है इस बात को जो नहीं मानता है वह अज्ञानी है। और लिखते हैं अज्जवि तिरयण-सुद्धा अप्पा झावि लहहि इंदत्तं । लोयत्तिय देवत्तं तस्य चुआ णिव्वुदि जंति ॥७७॥ अ.पा. आज भी रत्नत्रय से शुद्धता को प्राप्त हुए मनुष्य आत्मा का ध्यान कर इन्द्रपद तथा लौकान्तिक पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से च्युत हो निर्वाण को प्राप्त होते हैं।

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