Book Title: Raghuvansh Mahakavyam
Author(s): Kalidas Mahakavi, Bramhashankar Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 4
________________ [३] तब कामरूप की ओरं जाकर उनसे सत्कृत होकर महाराज रघु अयोध्या वापस लौट आये और सब दिशाओं को जीतने के उपलक्ष्य में बहुत धूमधाम के साथ पुष्कल दक्षिणा देकर उन्होंने विश्वजित् नामक यह सम्पन्न किया । पश्चम सर्ग महात्मा रघु के समक्ष आकर कौत्स ने कहा- 'राजन् ! मेरी विद्या के अनुसार गुरुदक्षिणा में १४ कोटि सुवर्ण मुद्राएँ लाने के लिए गुरु वरुतन्तु ने आबा दी है लेकिन आपकी गरीबी देखकर मैं तो अत्यन्त निराश हो गया हूँ।' यह सुनकर रघु ने उनसे कहा'भगवन् ! कुछ काल मेरी यज्ञशाला में आप ठहरने की कृपा करें, मैं तब तक उसके लिए मरसक चेष्टा करता हूँ ।" इस तरह उनको आश्वासन देकर कुबेर से धन देने की कामना से महाराज रघु एक रथ पर शस्त्रों को सजाकर रात में उसी पर सो गये। सबेरे खजान्ची ने खजाने में अकस्मात् स्वर्णवर्षण की बात कही। यह सुनकर राजा ने कौत्स को बुलाकर सारो स्वर्णराशि दे दी । कौत्स ने बड़ी प्रसन्नता से गुरु को देने योग्य धन लेकर राजा रघु को आशीर्वाद देते हुए कहा - 'राजन् ! आपके लिए कोई भी वस्तु मलम्य नहीं है इसलिए आप अपने स्वरूप के अनुरूप पुत्र प्राप्त करें ।' यह कहकर कौत्स चले गये । बाद में राजमहिषी ने एक दिन ब्राह्ममुहूर्त में पुत्र उत्पन्न किया । उसी पुत्र का नाम 'अज' पड़ा। क्रमशः अज ने अपना बाल्यकाल बिताकर सब कला-कौशलों और विद्याओं को पढ़कर भोज राजा की बहन के स्वयंवर - वृत्तान्त को उसके भृत्य द्वारा जानकर रघु से प्रेरित होकर ' क्रथकैशिकों के प्रति सैनिकों के साथ प्रस्थान किया । मार्ग में वे नर्मदा तट पर तम्बू लगाकर ठहरे ही थे, कि एक जङ्गली हाथी उनके घोड़े - हाथियों को विद्रावित करता हुआ वहाँ आ पहुँचा। अज ने उसको एक बाण मारा। बाण लगते ही वह हाथी रूप बदलकर गन्धर्वरूप धारण कर अज के सामने खड़ा होकर बोला – 'राजकुमार ! मैं प्रियदर्शन का पुत्र प्रियंवद नाम का गन्ध हूँ। मैंने मतङ्गनाम मुनि को गर्व से अपमानित किया था जिस पर उन्होंने शाप दे दिया और प्रार्थना करने पर मुनि ने आपके बाण से ह विद्ध होकर उक्त हाथी के शरीर से छुटकारा पाने का वर दिया था। उसी वरदान का यह फल है। मैं प्रसन्नता से आपको गन्ध भखा देता हूँ। इसके प्रभाव से शत्रुओं पर शत्र प्रहार के बिना ही आप विजय प्राप्त करेंगे ।' यह सुनकर अब उस अस्त्र को ग्रहण कर आगे चले और थोड़े ही काल में भोज की राजधानी में पहुँचे। उनका मन इन्दुमती में ऐसा आसक्त हो गया था कि उसकी चिन्ता से रात में बहुत देर के बाद उन्हें नींद आई। सबेरे उठकर दैनिक कृत्य सम्पन्न करके वे सभा में जाने के लिये प्रस्तुत हुए ।

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