Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ प्रस्तावना त्रायस्व' करने लगे। नाभिराज, शरणागत प्रजाको भगवान् वृषभनाथके पास ले गये। लोगोंने अपनी करुणकथा उनके समक्ष प्रकट की। प्रजाजनोंकी विह्वल दशा देखकर भगवान्की अन्तरात्मा द्रवीभूत हो उठी। उन्होंने उसी समय अवधिज्ञानसे विदेह क्षेत्रकी व्यवस्थाका स्मरण कर इस भरतक्षेत्रमें भी वही व्यवस्था चाल करनेका नि किया। उन्होंने असि ( सैनिककार्य ), मषी ( लेखनकार्य, कृषि ( खेती ), विद्या ( संगीत-नृत्यादि ), शिल्प ( विविध वस्तुओंका निर्माण ) और वाणिज्य ( व्यापार )-इन छह कार्योंका उपदेश दिया तथा पुरन्दर-इन्द्रके सह्योगसे देश, नगर, ग्राम आदिकी रचना करवायी। भगवान्के द्वारा प्रदर्शित छह कार्योंसे लोगोंकी आजीविका चलने लगी। कर्मभूमिका प्रारम्भ हो गया। उस समयकी सारी व्यवस्था भगवान वृषभदेवने अपने बुद्धिबलसे की थी। इसीलिए यह आदिपुरुष, ब्रह्मा, विधाता आदि संज्ञाओंसे व्यवहृत हुए। पिता नाभिराजकी प्रेरणासे उन्होंने कच्छ, महाकच्छ राजाओंकी बहनें यशस्वती और सुनन्दाके साथ विवाह किया । नाभिराजके महान आग्रहसे राज्यका भार स्वीकृत किया। आपके राज्यसे प्रजा अत्यन्त सन्तुष्ट हुई । कालक्रमसे यशस्वतीकी कुक्षिसे भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री हुई और सुनन्दाकी कुक्षिसे बाहुबली पुत्र तथा सुन्दरी नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् वृषभदेवने अपने पुत्र-पुत्रियोंको अनेक जनकल्याणकारी विद्याएँ पढ़ायी थीं। जिनके द्वारा समस्त प्रजामें पठन-पाठनकी व्यवस्थाका प्रारम्भ हुआ। नीलांजनाका नत्यकालमें अचानक विलीन हो जाना भगवानके वैराग्यका कारण बन गया। उन्होंने बड़े पुत्र भरतको राज्य तथा अन्य पुत्रोंको यथायोग्य देशोंका स्वामित्व देकर प्रव्रज्या धारण कर ली। चार हजार अन्य राजा भी उनके साथ प्रव्रजित हुए थे परन्तु वे क्षुधा, तृषा आदिकी वाधा न सह सकनेके कारण कुछ ही दिनोंमें भ्रष्ट हो गये। भगवान्ने प्रथमयोग छह माहका लिया था। छह माह समाप्त होनेके बाद वे आहारके लिए निकले परन्तु उस समय लोग, मुनियोंको आहार किस प्रकार दिया जाता है, यह नहीं जानते थे। अतः विधि न मिलनेके कारण आपको छह माह तक विहार करना पड़ा। आपका यह विहार अयोध्यासे उत्तरकी ओर हुआ और चलते-चलते आप हस्तिनागपुर जा पहुंचे। वहाँके तत्कालीन राजा सोमप्रभ थे। उनके छोटे भाईका नाम श्रेयांस था। इस श्रेयांसका भगवान् वृषभदेवके साथ पूर्वभवका सम्बन्ध था। वज्रजंघकी पर्यायमें वह उनकी श्रीमती नामक स्त्री था। उस समय इन दोनोंने एक मुनिराजके लिए आहार दिया था। श्रेयांसको जातिस्मरण होनेसे वह सब घटना स्मृत हो गयी इसलिए उसने भगवान्को देखते ही पडगाह लिया और इक्षुरसका आहार दिया। वह आहार वैशाख शुक्ला तृतीयाको दिया गया था तभीसे इसका नाम अक्षय तृतीया प्रसिद्ध हुआ। राजा सोमप्रभ, श्रेयांस तथा उनकी रानियोंका लोगोंने बड़ा सम्मान किया। आहार लेनेके बाद भगवान वनमें चले जाते थे और वहाँके स्वच्छ वायुमण्डलमें आत्मसाधना करते थे। दीर्घकालीन तपश्चरणके बाद उन्हें दिव्यज्ञानकेवलज्ञान प्राप्त हआ। अब वह सर्वज्ञ हो गये, संसारके प्रत्येक पदार्थको स्पष्ट जानने लगे। उनके पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती हुए। उन्होंने चक्ररत्नके द्वारा षट्खण्ड भरतक्षेत्रको अपने अधीन किया और राजनीतिका विस्तार कर आश्रित राजाओंको राज्यशासनकी पद्धति सिखलायी। उन्होंने ही ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण इस भरतक्षेत्रमें प्रचलित हए । इनमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण आजीविकाके भेदसे निर्धारित किये गये थे और ब्राह्मण व्रतीके रूपमें स्थापित हुए थे। सब अपनी-अपनी वृत्तिका निर्वाह करते थे इसलिए कोई दुःखी नहीं था। भगवान वृषभदेवने सर्वज्ञ दशामें दिव्यध्वनिके द्वारा संसारके पथभ्रान्त प्राणियोंको हितका उपदेश दिया। उनका समस्त आर्यखण्डमें विहार हआ। आयके अन्तिम समय वे कैलास पर्वतपर पहुँचे और वहीसे उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। भरत चक्रवर्ती यद्यपि षट्खण्ड पृथिवीके अधिपति थे फिर भी उसमें आसक्त नहीं रहते थे। यही कारण था कि जब उन्होंने गृहवाससे विरक्त होकर प्रव्रज्या-दीक्षा धारण की तब अन्तर्मुहूर्तमें ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। केवलज्ञानी भरतने भी आर्य देशोंमें विहार कर समस्त जीवोंको हितका उपदेश दिया और आयु के अन्तमें निर्वाण प्राप्त किया। प्रस्ता०-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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