Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ प्रस्तावना चम्पूकाव्य का विस्तार 'गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यमिधीयते' इस लक्षणके अनुसार गद्यपद्यमिश्रित रचनासे युक्त काव्यको चम्पूकाव्य कहा है। लोगोंकी अभिरुचि विभिन्न प्रकारकी होती है, कुछ लोग तो गद्य-काव्यको अधिक पसन्द करते हैं और कुछ लोग पद्य-काव्यको अच्छा मानते हैं, पर चम्पूकाव्यमें दोनोंकी रुचिका ध्यान रखा जाता है इसलिए वह सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है। महाकवि हरिचन्द्रने जीवन्धरचम्पूके प्रारम्भमें ही कहा है गद्यावली: पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् । हर्षप्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्राग्बाल्यतारुण्यवतीव कान्ता ।। -गद्यावली और पद्यावली-दोनों ही पृथक-पथक प्रमोद उत्पन्न करती है फिर यतश्च हमारी यह रचना तो दोनोंसे युक्त है अतः बाल्य और तारुण्य अवस्थासे युक्त कान्ताके समान अत्याह्लाद उत्पन्न करेगी इसमें संशय नहीं है। चम्पूसाहित्यकी ओर जब दृष्टि डालते हैं तब सर्वप्रथम त्रिविक्रम भट्टकी 'नलचम्पू' पर दृष्टि जा रुकती है। इसमें नल-दमयन्तीकी मनोहारिणी कथा गुम्फित की गयी है। श्लेष परिसंख्या आदि अलंकार पद-पदपर इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। पदविन्यास इतना सरस और सुकुमार है कि कविकी कलाके प्रति मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। इसी कविकी दूसरी रचना 'मदालसाचम्पू' भी है। यह कवि ९१५ ई० में हुआ है। इसके बाद ई० ९५९ में आचार्य सोमदेवके 'यशस्तिलकचम्पू की रचना हुई है। इस चम्पूमें आचार्यने कथाभागकी रक्षा करते हुए कितना प्रमेय भर दिया है ? यह देखते ही बनता है। इसके गद्य कादम्बरीसे भी चार हाथ आगे हैं । कल्पनाएँ अद्भुत हैं। कथाका सौन्दर्य ग्रन्थके प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है । सोमदेवने प्रारम्भमें ही लिखा है कि जिस प्रकार नीरस तृण खानेवाली गायसे सरस दूधकी धारा प्रवाहित होती है उसी प्रकार जीवनपर्यन्त न्याय जैसे नीरस विषयका अध्ययन करनेवाले मुझसे यह काव्यसुधाकी धारा बह रही है । इस ग्रन्थरूपी महासागरमें अवगाहन करनेवाले विद्वान् ही समझ सकते हैं कि आचार्य सोमदेवके हृदयमें कितना अगाध वैदुष्य भरा है । उन्होंने एक जगह स्वयं कहा है कि लोकवित्व और कवित्त्वमें समस्त संसार सोमदेवका उच्छिष्टभोजी है अर्थात् उनके द्वारा वर्णित वस्तुका ही सब वर्णन करने वाले हैं । इस महाग्रन्थमें आठ समुच्छ्वास हैं। अन्तके तीन समुच्छ्वासोंमें सम्यग्दर्शन तथा उपासकाध्ययनांग-श्रावकाचारका कितना विस्तृत और समयानुरूप वर्णन किया है यह देखते ही बनता है। तृतीय उच्छवास तो राजनीतिका भाण्डार ही है। इसके बाद महाकवि हरिचन्द्रके 'जीवन्धरचम्पू' काव्यकी रचना हुई है। इसकी कथा वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणि अथवा क्षत्रचूडामणिसे ली गयी है। यद्यपि जीवन्धर स्वामीकी कथाका मूल स्रोत गुणभद्रके उत्तरपुराणमें मिलता है तथापि उसमें और इसमें कितने ही स्थलोंमें नाम तथा कथामें वैचित्र्य पाया जाता है। इसमें प्रत्येक लम्भकी कथावस्तु तथा पात्रोंके नाम आदि गद्यचिन्तामणिके नामोंसे मिलते-जुलते हैं । महाकविने इस काव्यमें भगवान महावीरस्वामीके समकालीन क्षत्रचडामणि श्रीजीवन्धरस्वामीकी कथा गुम्फित की है। पूरी कथा अलौकिक घटनाओंसे भरी है। कथाकी रोचकता देखते हुए जब कभी हृदयमें आता है कि यदि इसका चित्रपट बन जाता तो अनायास ही एक आदर्श लोगोंके सामने आ जाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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