Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 23
________________ २० पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध (४) वज्रजंघ-जम्बूद्वीपस्थ सुमेरु पर्वतकी पूर्व दिशा सम्बन्धी विदेहक्षेत्रके पुष्कलावती देशकी राजधानी उत्पलखेट नगरीके राजा वज्रबाहु और उनकी रानी वसुन्धराके वज्रजंघ नामक पुत्र थे। बहुत ही प्रतापी और गुणवान् थे । स्वयंप्रभा देवीका जीव पूर्व विदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीके राजा वज्रदन्त और उनकी रानी लक्ष्मीमतीके श्रीमती नामकी पुत्री हुई। एक बार श्रीमती महलकी छतपर बैठी थी। वहाँ उसने आकाशमें जाते हुए एक देवको देखा । देखते ही उसे ललितांगदेवका स्मरण हो आया और उसके विरहमें वह दुःखी होने लगी। पण्डिता धायके प्रयत्नसे वज्रजंघका पता लगा और अन्तमें उसके साथ श्रीमतीका विवाह हुआ। श्रीमतीने कालक्रमसे पचास युगलोंमें सौ पुत्रोंको जन्म दिया। श्रीमतीके पिता चक्रवर्ती थे । वे एक बार कमलमें मृत भ्रमरको देखकर संसारसे विरक्त हो गये। उन्होंने पुत्रोंको राज्य देना चाहा पर वे भी राज्य लेनेको तैयार नहीं हुए तब पुत्रके पुत्र पुण्डरीकको राज्य देकर मुनि हो गये। उन्होंके साथ उनके दो पुत्रोंने भी मुनिदीक्षा धारण कर ली। __ श्रीमतीकी माताका पत्र पाकर वज्रजंघ श्रीमतीके साथ पुण्डरीकिणी नगरी गये । मार्गमें इन्होंने एक सरोवरके तटपर मुनिके लिए आहार दान दिया। वे मुनि श्रीमतीके ही छोटे पुत्र थे। पुण्डरीकिणी नगरमें बालक पुण्डरीककी राज्यव्यवस्था जमाकर वज्रजंघ वापस आ गये। एक बार शयन कक्षमें सुगन्धित घूपके धूमसे कण्ठावरुद्ध हो जानेके कारण वज्रजंघ और श्रीमतीकी साथ ही साथ मृत्यु हो गयी और दोनों ही भोगभूमिमें आर्य-दम्पती हुए। (५) आर्यदम्पती-आर्यदम्पती भोगभूमिमें कल्पवृक्षके नीचे बैठे थे उसी समय स्वयंबुद्ध मन्त्रीका जीव जो अब प्रीतिकर नामका चारणऋद्धिधारी मुनि था, आकाश मार्गसे भोगभूमिमें गया, वहाँ उसने आर्यदम्पतीको सम्यग्दर्शनका उपदेश दिया जिसे श्रवण कर दोनोंने सम्यग्दर्शन .धारण किया। आयुके अन्तमें मरकर आर्यदम्पती स्वर्गमें देव हुए। वज्रजंघका जीव आर्य श्रीप्रभ विमानमें श्रीधरदेव हआ और श्रीमतीका जीव आर्या भी सम्यक्त्वके प्रभावसे स्त्रीलिंग छेदकर स्वयंप्रभ विमानमें स्वयंप्रभ नामका देव हुई। (६) श्रीधर-एक बार श्रीधरदेवने अपने गुरु प्रीतिकर मुनिसे महाबल भवके शेष तीन मन्त्रियोंके विषयमें पूछा तो उन्होंने बताया कि सम्भिन्नमति और महामति तो तीव्र मिथ्यात्वके कारण निगोदको प्राप्त हुए हैं और शतमति दूसरे नरक गया है। श्रीधरदेवने दूसरे नरक जाकर शतमतिके जीवको सम्यग्दर्शन धारण कराया । श्रीधरदेवका जीव स्वर्गसे च्युत होकर सुविधि हुआ। (.) सुविधि-सुसीमा नगरके राजा सुदृष्टि और उनकी रानी सुनन्दाके पुत्र हुआ था। श्रीमतीका जीव, स्वयंप्रभ भी स्वर्गसे च्युत होकर सुविधिके केशव नामका पुत्र हुआ। पूर्व भवके कारण सुविधिका केशवके ऊपर अत्यन्त राग था। सुविधि, अभयघोष चक्रवर्तीका भानेज था इसलिए उसने चक्रवर्तीकी पुत्री मनोरमाके साथ विवाह कर चिरकाल तक राज्यसूखका उपभोग किया। अन्त कर सुविधि अच्युत स्वर्गमें इन्द्र हआ । केशवका जीव भी स्वर्गमें प्रतीन्द्र हआ । (८) अच्युतेन्द्रका बाईस सागरका समय सानन्द व्यतीत हुआ तदनन्तर वहाँसे चयकर वह वज्रनाभि हुआ। (९) वज्रनाभि-जम्बूद्वीप सम्बन्धी पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिणी नगरीके राजा वज्रसेन और उनकी रानी श्रीकान्ताका पुत्र था। केशवका जीव भी इसी नगरीमें कुबेरदत्त वणिक् और उसकी अनन्तमति स्त्रीके धनदेव नामका पुत्र हुआ। वज्रनाभि चक्रवर्ती था अतः चक्ररत्नके प्रकट होनेपर वह दिग्विजयके लिए निकला । इसी पर्याय में दर्शन विशद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चिन्तवन प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ। केशवका जीव भी यहीं अहमिन्द्र हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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