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प्रस्तावना
(१०) सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र-तैतीस सागरकी आयुवाला था, तैंतीस हजार वर्ष बाद उसे आहारकी इच्छा होती थी और तैंतीस पक्ष वाद श्वासोच्छ्वास चलता था। उसका उतना लम्बा समय तत्त्वचर्चामें व्यतीत हुआ।
पुरुदेवचम्पुकारने भगवान् वृषभदेवके उपर्युक्त दश भवोंके प्रसंगमें उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य लोगोंके भी भवान्तरोंका वर्णन किया है। यह पूर्वभव वर्णन प्रारम्भके तीन स्तबकोंमें पूर्ण हुआ है । आख्यानकी दृष्टिसे यह भाग, काव्यप्रबन्ध न रह कर पुराण बन गया है परन्तु कविने इस भागको भी अलंकारोंकी पुट देकर काव्य प्रबन्ध बनानेका पूर्ण प्रयत्न किया है और उसमें वे सफल भी हुए हैं। कुछ भाग तो साहित्यिक दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है। भरत और बाहुबली
भरत, भगवान् वृषभदेवके प्रथम पुत्र थे। यह इस अवसर्पिणी युगमें होनेवाले बारह चक्रवतियोंमें प्रथम चक्रवर्ती थे। भगवान् आदिनाथको केवलज्ञान, भरतकी स्त्रीके प्रथम पुत्र रत्न और आयुधशालामें चक्ररत्न ये तीन कार्य एक साथ प्रकट हुए थे। 'धर्म ही अर्थ और कामका मूल है' ऐसा विचारकर भरतने सर्वप्रथम भगवान् आदिनाथके केवलज्ञान कल्याणका महोत्सव मनाया। कुबेर द्वारा रचित समवसरणमें जाकर उन्होंने भगवान्की पूजा की। दिव्यध्वनि सुनी। पश्चात् घर आकर पुत्र जन्मका उत्सव किया तदनन्तर दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया। जिनसेनाचार्यने अपने आदिपुराणमें इस दिग्विजयका विस्तारके साथ वर्णन किया है । उसी आधारपर अर्हद्दासजीने भी यहाँ दिग्विजयका वर्णन यथासम्भव विस्तारसै किया है और इस वर्णनमें उन्होंने पूरा नवम स्तबक व्याप्त किया है । ( पाँच सौ छब्बीस योजन विस्तृत भरतक्षेत्रके छह खण्डोंमें भ्रमण करते हुए भरत चक्रवर्तीको साठ हजार वर्ष लगे थे ऐसा आदिपुराणमें स्पष्ट किया गया है।)
दिग्विजयसे लौटनेके बाद जब चक्ररत्नने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तब पुरोहितने बताया कि अभी आपको अपने भाइयोंको वश करना बाकी है, उनके वशीभूत होनेपर ही चक्ररत्नका अयोध्यामें प्रवेश होगा। पुरोहितकी आज्ञानुसार भरतने सब भाइयोंके पास दूत भेजे और अधीनता स्वीकृत करनेका आदेश भेजा । बाहुबलीको छोड़ सब भाइयोंने संसारसे विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली परन्तु बाहुबलीने युद्ध करनेकी इच्छा प्रकट की। दोनों ओरकी सेनाएँ युद्धस्थलमें आ पहुँची तब उभयपक्षके मन्त्रियोंने विचार किया कि भरत और बाहुबली-दोनों ही चरमशरीरी-तद्भवमोक्षगामी हैं अतः इनका तो कुछ बिगड़नेवाला नहीं है परन्तु युद्धमें निरपराध सैनिक मारे जायेंगे। अच्छा हो कि ये अपना शक्ति परीक्षण स्वयं करें। मन्त्रियोंकी संमतिमें दोनोंके बीच दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध होना निश्चित हुए। बाहुबलीने तीनों युद्धोंमें भरतको पराजित कर दिया । भरतने क्रोधसे पीड़ित हो बाहुबलीके ऊपर चक्ररत्न चला दिया । पर यह चक्ररत्न भी बाहुबलीकी प्रदक्षिणा देकर अकर्मण्य हो गया।
इस घटनासे बाहुबलीको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने दीक्षा धारण कर ली। एक वर्ष तक खड़े-खड़े तपश्चरण किया । ग्रीष्म ऋतुकी धूप, वरसातकी मूसलधार वर्षा और शीतकालकी भयंकर शीतलहर उन्हें ध्यानसे विचलित नहीं कर सकी । एक वर्षके बाद उन्हें केवलज्ञान हो गया।
भरत निष्कण्टक राज्य करने लगे। इन्होंने ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की तथा उन्हें धार्मिक संस्कारोंका उपदेश दिया। दिग्विजयके समय जो जयकुमार इनके सेनापति थे उन्होंने संसारसे विरक्त होकर आदिजिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर ली और भगवान के समवसरण में गणधर पद प्राप्त किया। माघ कृष्ण चतुर्दशीके दिन भगवान आदिनाथने कैलासपर्वतसे मोक्ष प्राप्त किया। अन्तमें भरतने भी दीक्षा धारण कर यत्र-तत्र भ्रमण कर धर्मोपदेश दिया और उसी कैलाससे निर्वाणपद प्राप्त किया।
भरतके नामपर ही इस देशका भारत नाम प्रसिद्ध हुआ है, इसका उल्लेख पहले किया जा चुका है।
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