Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध पिता नाभिराजकी प्रार्थना स्वीकृत कर युवा वृषभदेवने यशस्वती और सुनन्दाके साथ विवाह किया। यशस्वतीने स्वप्नदर्शनपूर्वक गर्भ धारण किया। शुभमुहुर्तमें भरतको जन्म दिया । भरतका वर्णन करते हुए कविने जो आर्यायुगल ( ३७-३८ ) लिखा है उसका चमत्कार देखिए। यशस्वतीने भरतके अनन्तर निन्यानबे पुत्र और ब्राह्मी नामक पुत्रीको भी उत्पन्न किया और सुनन्दाने बाहुबली पुत्र तथा सुन्दरी नामक पुत्रीको जन्म दिया। भगवान्ने अपने पुत्र-पुत्रियोंको अनेक प्रकारकी शिक्षा दी। कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेपर प्रजामें संकटकी स्थिति आ गयी। नाभिराजा प्रजाजनोंको साथ लेकर भगवान् आदिनाथके पास गये। उन्होंने सबको सान्त्वना देते हुए इन्द्रके सहयोगसे कर्मभूमिकी रचना की। इन्द्रने भगवानका राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेकके अवसरपर सुबन्दीजनोंके मुखसे राजा वृषभदेवकी जो स्तुति की गयी है उसमें कविने कितना कौशल दिखाया है यह पद्य १३-१४ व १५ में देखिए । बाहुबलीके सौन्दर्य और शौर्यके वर्णनमें कविकी श्लेषप्रतिभाका चमत्कार देखिए ( स्तबक ६ श्लोक ४६ )। भगवानकी राज्यावस्था और राज्यशासनकी कुशलताका वर्णन करते हुए देखिए कितना श्लेषात्मक तथ्यका वर्णन हुआ है। (स्त. ७, २१ ) श्लेषमूलक विरोधाभासका कितना सुन्दर उदाहरण है यह । ___ कदाचित् सभामें बैठे हुए भगवान्, नीलांजना नामक सुरनर्तकीका नृत्य देख रहे थे कि अकस्मात् उसकी आयु समाप्त हो गयी। उसका विलय देख भगवान संसारसे विरक्त हो गये। वे संसारकी अनित्यताका विचार करने लगे। लक्ष्मीके विषयमें उनका हृदय क्या सोचने लगा यह श्लोक २६ में देखिए । लौकान्तिकदेव आकर भगवानके वैराग्यचिन्तनका समर्थन करते हैं। अन्तमें भगवानने भरतका राज्याभिषेक कर चार हजार राजाओंके साथ निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर ली। देवोंने भगवान्का दीक्षा कल्याणक किया। नमि और विनमिके लिए धरणेन्द्रने विजयाईका राज्य प्रदान किया। हस्तिनापुरके राजा सोमप्रभ और श्रेयांसने भगवान्को एक वर्षकी तपस्याके बाद इक्षुरसका आहार दिया। एक हजार वर्षकी मौन तपस्याके बाद भगवानने केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्द्रका आदेश पाकर कुबेरने समवसरणकी रचना की। कविवर अर्हद्दासजीने समवसरणके वर्णनमें अपनी काव्यप्रतिभाको बड़ी कुशलतासे साकार किया है। समवसरण सभा जिस वनचतुष्टयसे सुशोभित थी उसे श्लिष्टोपमालंकारसे कैसा अलंकृत किया गया है, यह देखनेके योग्य है ( पृ. ३०१)। समवसरणमें विराजमान वृषभजिनेन्द्रका स्तवन इन्द्र के मुखसे देखिए कितना सुन्दर बन पड़ा है। स्तोता और स्तुत्य-दोनोंकी अनुरूपतापर कविने पूर्ण ध्यान रखा है ( स्त. ८, श्लोक ३८-४१ )। वीतराग जिनेन्द्रकी दिव्यध्वनि सुनकर भरत राजा सम्यग्दर्शनकी विशुद्धताको प्राप्त हुए तथा समस्त सभा परम धैर्यको प्राप्त हुई। दिव्यध्वनिके अनन्तर भगवान्का आर्यखण्डमें विहार हुआ । अन्तिम समय वे कैलासपर्वतपर आरूढ़ हुए । समवसरणसे वापस आकर भरतने पुत्र जन्म तथा चक्ररत्नकी प्राप्तिका उत्सव किया। शरद् ऋतुमें सम्राट भरतने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया। उस सन्दर्भमें शरद् ऋतुका वर्णन देखिए कितना सुन्दर हुआ है ( स्त. ९, श्लोक ३ ) । सम्पूर्ण नवम स्तबक, सेनाके वैभव और दिग्विजयकी विविध घटनाओंके वर्णनसे भरा हुआ है । कवित्वकी धारा प्रारम्भसे लेकर अन्ततक एक सी प्रवाहित हुई है। जान पड़ता है कविका हृदय अनन्त शब्दोंके भाण्डारसे परिपर्ण है। चारों दिशाओं में भ्रमण करनेके बाद चक्रवर्ती भरत कैलास पर्वतपर पहुँचते हैं और वहाँ श्री आदिजिनेन्द्र के दर्शन कर कृतकृत्य हो जाते हैं। अयोध्या के गोपुरमें जब चक्ररत्नने प्रवेश नहीं किया तब पुरोहितके द्वारा उसका कारण जानकर बाहुबलीके पास दूत भेजा गया। बाहुबली द्वारा भरतकी अधीनता स्वीकृत न किये जानेपर मन्त्रियोंके विमर्शानुसार दोनों भाइयोंमें नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध और बाहुयुद्ध हुए । तीनों युद्धोंमें प्राप्त पराजयसे खिन्न होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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