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पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध
तत्सोऽयं न किंचिद् गणयति विदितं तेऽस्तु तेनास्मि दत्ता भृत्येभ्यः श्रीनियोगात् गदितुमिति गतेवाम्बुधिं यस्य कीर्तिः ॥ -साहित्यदर्पण, सप्तम परिच्छेद
पुरुदेव चम्पके इस इलोककी छायारूप है
मातङ्गोपरि संपतन्त्यनुदिनं श्यामा कृपाणीलता
सद्वाराञ्चितया तया परवशो नान्यां समालोकते । मां भृत्येषु नियुक्तवान्निधिपतिस्तात श्रुतं तेऽस्त्विति
श्री वार्तां गदितुं ध्रुवं जलनिधि यत्कीर्तिराटीकत ॥३॥
पुरुदेव चम्पूका काव्यात्मक अन्तःपरिचय
पुरुदेवचम्पूमें दश स्तबक हैं । जिनमें प्रारम्भके ३ स्तबकोंमें पुरुदेव भगवान् आदिनाथके पूर्वभवों का वर्णन किया गया है । शेष स्तबकोंमें भगवान् आदिनाथ और उनके पुत्र भरत तथा बाहुबलीका चरित्रचित्रण किया गया है । ग्रन्थका कथाभाग अत्यन्त रोचक है, उसपर कविने उसे अपनी कलमसे और भी रोचक बना दिया है । यही कारण है कि संस्कृत साहित्य में इसका अनूठा स्थान माना जाता है । कविकी नयी-नयी कल्पनाओं तथा श्लेष, विरोधाभास, परिसंख्या आदि अलंकारोंके पुटने इसके गौरवमें चार चाँद लगा दिये हैं । कितने ही श्लेष तो इतने कौतुकावह हैं कि अन्यत्र उनका मिलना असम्भव सा है । ग्रन्थका प्रत्येक भाग सरस और चुटीला है । ज्यों-ज्यों ग्रन्थ आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसकी भाषा और भावमें प्रौढ़ता आती जाती है । इस कथनकी पुष्टिके लिए कुछ समुद्धरण आवश्यक हैं ।
प्रारम्भ में मंगलपीठिकाके तीन श्लोक देखिए, जिनमें क्रमसे वृषभजिनेन्द्र और कल्पवृक्ष, आदिजिनेन्द्र और सूर्य तथा आद्यजिनपति और चन्द्रमाके रूपकको श्लेषका पुट देकर कितना आकर्षक बनाया गया है ।
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— पुरुदेव - स्तबक १०
मंगलपीठिका के अन्तमें कवितारूपी लताका रूपकालंकारके द्वारा अत्यन्त सुन्दर वर्णन है ।
अलकानगरी के वर्णनमें श्लेषका चमत्कार देखिए
'या खलु घनश्रीसम्पन्ना निभृतसामोदसुमनोऽभिरामा सकलसुदृग्भिः शिरसा श्लाघ्यमानमहिमा, विविधविचित्र विशोभितमालाढ्या, अलकाभिधानमर्हति' ।
जो नगरी अलकाभिधान - अलका इस नामको ( पक्ष में अलक - केश इस नामको ) धारण करनेके योग्य है क्योंकि यह घनश्रीसम्पन्ना - अत्यधिकलक्ष्मीसे सम्पन्न है ( पक्षमें मेघ के समान शोभासे युक्त हैकृष्णवर्ण है ), निश्चल तथा हर्षसे भरे हुए विद्वानोंसे मनोहर है ( पक्ष में धारण किये हुए सुगन्धित फूलों से मनोहर है, समस्त सुदृग् - विद्वान् ( पक्षमें समस्त स्त्रियाँ) अपने मस्तक से जिसकी महिमाका यशोगान करते हैं और विचित्र तथा विशोभी- तमालों-तमाल वृक्षोंसे युक्त है ( पक्षमें नाना रंगकी सुशोभित मालाओं से सहित है ।
अतिबल राजाकी मनोहरा नामक रानीका वर्णन करते हुए जो 'यस्याः किल मृदुलपदयुगलं गमनकलाविलास तिरस्कृतहंसकमपि विश्वस्तलालितहंसकं ( पृ० १४ )
गद्य खण्ड दिया है उसमें विरोधाभास अलंकार कितना साकार हुआ है यह देखनेके योग्य है ।
राजा महाबलका वर्णन करते समय जो गद्यपंक्तियाँ अवतीर्ण की ( पृ० १९ ) उन पंक्तियों में परिसंख्यालंकार कितना स्पष्ट है तथा श्लेषालंकारने उसे कितना विकसित किया है यह दर्शनीय है । त्रिदशोपसेवितो यः प्राज्यविराजित रुचिर्महामेरुः ।
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