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पुरुदेव चम्पूप्रबन्ध
इन प्रशस्तियोंके आधारपर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित पुरुदेव चम्पू की प्रस्तावनामें उसके सम्पादक श्री पं० जिनदासजी शास्त्रीने यह सम्भावना प्रकट की है कि अर्हद्दासजी पं० आशाधरजीके शिष्य थे । परन्तु पं० के० श्रीभुजबली शास्त्री' और स्व० पं० नाथूरामजी प्रेमीने' इस कल्पनामें अपनी असहमति प्रकट की है । यदि यह आशाधरजीके शिष्य हैं तो यह भी तेरहवीं विक्रम शतीके अन्तिम और चौदहवीं शती के प्रथम चरणके विद्वान् सिद्ध होते हैं । इनके विषयकी अन्य जानकारी अप्राप्त है ।
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श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने सागारधर्मकी प्रस्तावना में मुनिसुव्रत काव्यकी प्रशस्तिके -
धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परं -
त्यक्त्वा श्रान्ततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् । सद्धर्मामृतमुद्धृतं जिनवचः क्षीरोदधेरादरात्
पायं पायमितः श्रमः सुखपथं दासो भवाम्यर्हतः || ६४ || मिथ्यात्व कर्मपटलैश्. .....॥६५॥
अर्थात् — कुमार्गोंसे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक श्रेष्ठमार्ग था, उसे छोड़कर मैं बहुत कालतक भटकता रहा । अन्तमें बहुत थककर किसी तरह काललब्धिवश उसे फिर पाया । सो अब जिनवचनरूप क्षीर सागरसे उद्धृत किये हुए धर्मामृत ( आशाधरके धर्मामृत शास्त्र ? ) को सन्तोषपूर्वक पी-पीकर और विगतश्रम होकर मैं अर्हद्भगवान्का दास होता हूँ ॥ ६४ ॥
कर्म-पटलसे बहुत कालतक ढँकी हुई मेरी दोनों आँखें जो कुमार्ग में ही जाती थीं, आशाधरकी उक्तियोंके विशिष्ट अंजनसे स्वच्छ हो गयीं और इसलिए अब मैं सत्पथका आश्रय लेता हूँ ॥ ६५ ॥
— इन श्लोकोंके आधारपर यह अनुमान किया है कि सम्भवतः यह अर्हद्दास, वह मदनकीर्ति यतिपति जान पड़ते हैं जिनके विषय में राजशेखर सूरिके 'चतुर्विंशति-प्रबन्ध में यह उल्लेख किया गया है कि मदनकीर्ति, वादीन्द्र विशालकीर्ति के शिष्य थे । वे बड़े भारी विद्वान् थे । चारों दिशाओंके वादियोंको जीतकर उन्होंने ‘महाप्रामाणिक-चूडामणि' पदवी प्राप्त की थी । एकबार गुरुके निषेध करनेपर भी वे दक्षिणापथको प्रयाण कर कर्णाटकमें पहुँचे । वहाँ विद्वत्प्रिय विजयपुर नरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्यपर मोहित हो गये और उन्होंने उनसे अपने पूर्वजोंके चरित्रपर एक ग्रन्थ निर्माण करनेको कहा । कुन्तिभोजकी कन्या मदनमंजरी सुलेखिका थी । मदनकीर्ति पद्य रचना करते जाते थे और मदन मंजरी पर्देके ओटमें बैठकर उसे लिखती जाती थी ।
कुछ समयमें दोनों के बीच प्रेमका आविर्भाव हुआ और वे एक दूसरेको चाहने लगे । जब राजाको इसका पता लगा तो उसने मदनकीर्तिका वध करनेकी आज्ञा दे दी । परन्तु जब उनके लिए कन्या भी अपनी सहेलियों के साथ मरने को तैयार हो गयी, तब राजा विवश हो गया और उसने दोनोंका विवाह कर दिया । मदनकीर्ति अन्ततक गृहस्थ ही रहे और विशालकीर्तिके द्वारा बार-बार समझाये जानेपर भी प्रबुद्ध नहीं हुए ।
क्या यही मदनकीर्ति ही तो कुमार्गमें ठोकरें खाते-खाते अन्त में आशाधरकी सूक्तियोंसे अर्हद्दास न बन गये हों । मुनिसुव्रत काव्यकी प्रशस्तिके ६४वें श्लोकसे इस विचारधाराको बहुत कुछ पुष्टि मिलती है । फिर 'अर्हद्दास' यह नाम भी विशेषण जैसा ही जान पड़ता है । सम्भव है उनका वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । एक बात यह भी विचारणीय है कि अर्हद्दासजी के ग्रन्थोंका प्रचार प्रायः कर्णाटक प्रान्तमें ही रहा है जहाँ कि वे 'चतुविशति प्रबन्ध' के उल्लेखानुसार सुमार्ग से पतित होकर रहने लगे थे । सत्पथपर पुनः लौटने पर उनका वहीं रह जाना सम्भव भी प्रतीत होता है ।
१. देखो, मुनिसुव्रत काव्यकी प्रस्तावना |
२. देखो, सूरतसे प्रकाशित सागारधर्मामृतकी प्रस्तावना |
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