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प्रस्तावना
यहाँ सुमेरुके वर्णनमें रूपक और श्लिष्टोपमाका चमत्कार देखिए कितना सुखद है । ललितांगदेवकी स्वयंप्रभा देवीके वर्णन में देखिए श्लेषोपमाने कितना स्पष्ट रूप प्राप्त किया है । (देखिए श्लोक ७१-७२ )
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द्वितीय स्तबकमें पाणिग्रहणके लिए उद्यत श्रीमतीकी नेपथ्यरचना देखिए - (पृ. ८७ ) जहाँ उत्प्रेक्षा, श्लेष और उपमाने कितना चमत्कार दिखलाया है ।
संयोगशृंगारके ( श्लोक ६७ ) वर्णनमें अतिशयोक्तिका चमत्कार देखिए जहाँ उपमेयका अभाव कर मात्र उपमानको शेष रखा गया है ।
इसी सन्दर्भका असंगति अलंकार ( श्लोक ६८ ) भी द्रष्टव्य है ।
तृतीय स्तबक (पृ. १३२ ) में वचनश्लेष, उपमा और परिसंख्याकी महिमा देखिए ।
अहमिन्द्रके वर्णन (पृ. १३६) में विरोधाभास और व्यतिरेकका सम्मिश्रण देखिए कितना सुन्दर है ।
चतुर्थ स्तबकसे भगवान् वृषभदेवकी कथाका प्रारम्भ होता है। यहाँ कविने मरुदेवीके नख - शिख वर्णनमें अपनी काव्यप्रतिभाका अपूर्व प्रदर्शन किया है ( श्लोक ११ ) मरुदेवीके नखोंका वर्णन देखिए जहाँ नक्षत्र और राशियोंको माध्यम बनाकर कितना सुन्दर विरोधाभास दिया है ।
संस्कृतमें अब्ज शब्द के तीन अर्थ हैं कमल, चन्द्रमा और शंख । यहाँ मरुदेवीके नेत्र, मुख और कण्ठका वर्णन करनेके लिए (श्लोक १३१) उन तीनोंको देखिए, कितनी सुन्दरता के साथ एकत्र सँजोया है ?
अयोध्यानगरी के वर्णनमें ( पू. १४८ ) अनन्वय, श्लेष, विरोध और व्यतिरेकको किस खूबी के साथ एक साथ बैठाया है यह देख कविकी काव्यप्रतिभापर आश्चर्य प्रकट होता है ।
मरुदेवीका स्वप्नदर्शन और षट्कुमारिका देवियोंका विनोदोक्ति सन्दर्भ कवित्वकी दृष्टिसे बेजोड़ है । एक देवकी विनोदोक्ति देखिए ( श्लोक ३६ ) कितनी मनोरम है जहाँ आदिमें रूपयुता -- सौन्दर्यसे युक्त द्राक्षावली, आदिमें 'रु' अक्षरसे युक्त होकर रुद्राक्षावली और मध्य में अधिका सिता, ककारसे युक्त होकर सिकता बन गयी कितनी चमत्कारपूर्ण उक्ति है ।
भगवान् वृषभदेव के जन्मोत्सवके प्रसंग में सुमेरुपर्वतका वर्णन करते हुए कविने जो पद्य और गद्य लिखे हैं उनमें उनकी काव्यप्रतिभा कितनी साकार हुई है, देखिए ( श्लोक ६६-६८ व गद्य पृ. १८२ ) ।
यह सुमेरु शैलका वर्णन, कविने सौधर्मेन्द्र के द्वारा, ऐशानेन्द्र आदिको लक्ष्य कर कराया है अतः सौधर्मेन्द्रकी उक्तिका गौरव सुरक्षित रखनेका ध्यान रखा गया है ।
पंचम स्तबक जन्माभिषेकका जल लानेके लिए देवपंक्तियाँ क्षीरसागर पहुँचती हैं उस समय श्लेषोपमा विरोध और व्यतिरेकके माध्यमसे कविने क्षीरसागरका वर्णन करनेके लिए ( पृ. १९१ गद्य - पंक्तियाँ लिखी हैं वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं ।
पर जो
जिनबालक वृषभदेवका अभिषेक, इन्द्रने क्यों किया ? इसकी कल्पना करते हुए कविने जो (पृ. १९६ ) गद्यपंक्तियाँ लिखी हैं वे कविकी काव्यप्रतिभाका जीता-जागता आदर्श हैं ।
अभिषेकके बाद बिखरे हुए जलका तथा इन्द्रके द्वारा किये हुए ताण्डव नृत्यका वर्णन भी कविने अनुपम काव्यशैली में किया है । इन्द्रकृत भगवान्का स्तवन साहित्यिक दृष्टिसे बहुत महत्त्वपूर्ण है । जिनबालककी बालचेष्टाओं का वर्णन, यद्यपि धर्मशर्माभ्युदयसे प्रभावित है, तथापि अपनी विशेषता पृथक् रखता है ।
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षष्ठ स्तबकमें भगवान् वृषभदेवकी युवावस्थाका वर्णन करते हुए शिखासे लेकर नख तक वर्णन किया गया है । उसमें कविकी काव्यप्रतिभाका अच्छा दिग्दर्शन हुआ है । मुखका वर्णन देखिए ( श्लोक ३ व गद्य पृ. २२४ ) कितना कल्पनापूर्ण है ।
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