Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ प्रस्तावना १३ प्रेमीजीकी इस कल्पनाके सन्दर्भमें इतना ही लिखना है कि अन्य प्रबल प्रमाणोंके बिना उसपर विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है। पुरुदेवचम्पूके अन्यत्र उद्धरण कविवर अर्हद्दासजीकी कविता प्रसाद आदि गुणोंसे परिपूर्ण तथा उपमा-रूपक आदि अलंकारोंसे अलंकृत है। पुरुदेवचम्पू तो श्लेषके चक्रमें पड़ जानेसे दुरूह हो गया है परन्तु मुनिसुव्रत काव्य, कवि की नैसर्गिक वाग्धारामें प्रवाहित होनेके कारण अपने प्रसादादि गुणोंको सुरक्षित रख सका है। इसके अलंकार भी यथास्थान शोभा पाते हैं । यही कारण है कि अलंकारचिन्तामणिमें इसके कितने ही श्लोक उदाहरणके रूपमें उद्धृत किये गये हैं। जैसे प्रथम सर्गका निम्नांकित द्वितीय श्लोक, अलंकारचिन्तामणिमें भ्रान्तिमान् अलंकारके उदाहरणमें उद्धृत किया गया है चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गकान्ति ज्योत्स्नेति मत्वा द्रवतीन्दुकान्तः । चकोरयूथं पिबति स्फुटन्ति कृष्णेऽपि पक्षे किल करवाणि ।।२।। अत्र चन्द्रप्रभाङ्गकान्तौ ज्योत्स्नाबुद्धिः ज्योत्स्ना सादृश्यं विना न स्यादिति सादृश्यप्रतीतौ भ्रान्तिमदलंकारः। - अलंकार चिन्तामणि, पृष्ठ ५६ प्रथम सर्गके निम्नांकित ३१ और ३२वें श्लोक अलंकारचिन्तामणिके पंचम परिच्छेदके इस प्रकरणमें समुद्धृत है मुक्तागुणच्छायमिषेण तन्व्याः रसेन लावण्यमयेन पूर्णे । नाभिह्रदे नाथनिवेशितेन विलोचनेनानिमिषेण जज्ञे ॥३१॥ अमर्षणायाः श्रवणावतंसमपाङ्गविद्युद्वि निवर्तनेन । स्मरेण कोषादवकृष्यमाणं रथाङ्गमुर्वीपतिराशशङ्के ॥३२।। प्रथम सर्गका चौंतीसवाँ श्लोक, अलंकारचिन्तामणिमें परिसंख्या अलंकारके उदाहरणमें उद्धृत किया गया है श्लेषेऽपि चारुत्वातिशयरूपा परिसंख्या यथायत्रार्तवत्त्वं फलिताटवीषु पलाशिताद्रौ कुसुमेऽपरागः । निमित्तमात्रे पिशुनत्वमासीन्निरौष्ठयकाव्येष्वपवादिता च ॥८९।। ऋतुःप्राप्त आसामटवीनां आर्तवास्तासां भावः । आर्तवतो दुःखवतो भावश्च । द्रौद्रमे पर्णवत्ता मांसभक्षित्वं च । परागः पुष्परजः अपरागः संतोषाभावः परेषामागोऽपराधो वा । शुभाशुभ-सूचकत्वं कर्णेजपत्वं च । पश्च वश्च पवौ आदी येषां ते पवादयः । पकारादय ओष्ठ्यवर्णा न एषां तानि अपवादीनि तेषां भावस्तत्ता निन्दा वादिता च । --अलंकार०, पृष्ठ ९१ द्वितीय सर्गका निम्नांकित ३३वाँ इलोक अलंकारचिन्तामणिमें प्रेयोऽलंकार और संसृष्टि अलंकारके उदाहरणमें समुद्धृत है रहस्सु वस्त्राहरणे प्रवृत्ताः सहासगर्जाः क्षितिपालवध्वाः । सकोपकन्दपंधनुष्प्रमुक्तशरोघहुंकाररवा इवाभुः ॥३३॥ अत्र शृङ्गाररसस्य पोषणम् । एवं रसान्तरेष्वपि योज्यम् । -पृष्ठ ९४ उपमारसवदलंकारयोः संसृष्टिः। -पृष्ठ ९८ . १४०० ई० के पूर्वभागके विरचित साहित्यदर्पणमें विश्वनाथ कविराजके द्वारा उद्धृत निम्न श्लोक लग्नं रागावृताङ्गया सुदृढमिह यथैवारिकण्ठे पतन्त्या मातङ्गानामपीहोपरि परपरुषैर्या च दष्टा पतन्ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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