Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ प्रस्तावना इनकी एकतापर प्रकाश डालने वाले, डॉ० राजकुमार साहित्याचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० आगरा, पं० हीरालालजी शास्त्री ब्यावर और डॉ० कामताप्रसादजी एम० आर० ए० एस० डी० एल० अलीगंजके लेख, जो कि अनेकान्त में प्रकाशित हैं, द्रष्टव्य हैं। पुरुदेवचम्पूका आधार इन वृषभदेवका विस्तृत चरित्र जिनसेनाचार्यने महापुराण ( आदिपुराण ) में लिखा है उसीके आधारपर कविवर अर्हद्दासजीने 'पुरुदेवचम्पू' की रचना की है। पुरुदेवचम्पू की पीठिका ( श्लोक ९-१०) में कविवर अर्हद्दासजी ने आचार्य जेनसेनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए लिखा है कि अमृत तरंगिणीके सदृश प्रसिद्ध कोमल वचन पंक्तिसे युक्त तथा फैलती हुई कीर्तिसे सहित वे पूर्व कवि कल्याण करें जिन्होंने किसी अन्यके द्वारा अखण्डित संसारसम्बन्धी सन्तापको समूल नष्ट करनेवाली, आदि जिनेन्द्रकी कथारूप अमतका स्रोत प्रकट किया है। आदि जिनेन्द्रकी उत्कृष्ट कथाके रससे सुपरिचित मेरी जिह्वा उन गुरुओंकी स्तुति करे जिनके कटाक्ष रूप अमतके सेचनसे मेरी सुभाषितलता सुपष्पित हई है। प्रतिवादियोंकी प्रगल्भतारूप उन्नत शिखरको गिरानेके लिए जो वज्रके समान समर्थ हैं, तथा विकसित मालती लताके कुसुम रसकी सुगन्ध सन्ततिको छोड़नेवाली वाणीसे जो कदलीफल सम्बन्धी मधुर रसकी चोरीमें चतुर हैं, ऐसे श्रीमन्त जिनसेनाचार्य गुरु जयवन्त हों। वास्तवमें जिनसेन स्वामीने महापुराणकी रचना कर जैनजगत्का महान् उपकार किया है तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थ कर्ताओंके लिए सुयोग्य सामग्री प्रदान की है। पुरुदेवचम्पूके रचयिता कवि अर्हद्दास पुरुदेवचम्पू प्रबन्धके रचयिता कविवर अर्हद्दासजी हैं। इनके द्वारा रचित पुरुदेवचम्पू, मुनिसुव्रत काव्य तथा भव्य कण्ठाभरण ये तोन ग्रन्थ उपलब्ध है । इन तोनोंके अन्त में इन्होंने जो संक्षिप्त प्रशस्तियाँ दी हैं उनमें पं० आशाधरजी का बड़ी श्रद्धाके साथ उल्लेख किया है। यथा मिथ्यात्वपङ्ककलुषे मम मानसेऽस्मि न्नाशाधरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने । उल्लासितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्चम्पुदम्भजलजेन समुज्जजम्भे ।। -पुरुदेवचम्पू । मिथ्यात्वकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्मे दृशोः कुपथयाननिधानभूते । आशाधरोक्तिलसदञ्जनसंप्रयोगैः स्वच्छीकृते पृथुलसत्सत्पथमाश्रितोऽस्मि ॥६५।। -मुनिसुव्रत काव्य। सूक्त्यैव तेषां भवभीरवो ये गृहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः । त एव शेषाश्रमिणां सहायधन्याः स्युराशाधरसूरिवर्याः ।। -भव्यकण्ठाभरण । १. 'वृषभदेव तथा शिवसम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ' शीर्षक लेख : अनेकान्त, दिसम्बर १९६५ फ़रवरी,१९६६। २. 'वृषभदेव और महादेव' शीर्षक लेख : अनेकान्त, नवम्बर १९५६, वर्ष १४, किरण ३-४ । ३. 'ऋषभदेव और शिवजी' शीर्षक लेख : अनेकान्त, अक्टूबर १९५३, वर्ष १२, किरण ५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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