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पुरुदेवचम्पूप्रबन्ध इस ग्रन्थकी रचनामें कविने बड़ा कौशल दिखाया है। अलंकारकी पुट और कोमलकान्त पदावली बरवश पाठकके मनको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। मुझे तो लगता है कि कविको निसर्गसिद्ध प्रतिभा प्राप्त थी इसीलिए प्रकरणानुकूल अर्थ और अर्थानुकूल शब्दोंके अन्वेषणमें उसे जरा भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा है। कितने ही गद्य तो इतने कौतुकावह हैं कि उन्हें पढ़कर कविकी प्रतिभाका अलौकिक चमत्कार दृष्टिगत होने लगता है। नगरीवर्णन, राजवर्णन, राज्ञीवर्णन, चन्द्रोदय, सूर्योदय, वनक्रीड़ा, जलक्रीडा तथा युद्ध आदि महाकाव्यके समस्त वर्णनीय विषयोंको कविने यथा स्थान इतना सजाकर रखा है कि देखते ही बनता है । इसके बाद जैनचम्पू ग्रन्थोंमें महाकवि अर्हद्दासके पुरुदेवचम्पूका नम्बर आता है, इसमें श्लेषादि अलंकारोंकी प्रधानता है। भगवान् आदिनाथका दिव्यचरित्र, भवान्तरवर्णनके साथ-साथ उसमें अंकित किया गया है । इसकी विशेषता और साज-सजावटपर आगे लिखा जायेगा।
पुरुदेवचम्पूके बाद भोजराजके 'चम्पूरामायण' अभिनव कालिदासके 'भागवतचम्पू' कवि कर्णपूरके 'आनन्दवृन्दावनचम्पू', जीव गोस्वामीके 'गोपालचम्पू', श्रीशेषकृष्णके 'पारिजातहरणवम्पू', नीलकण्ठ दीक्षितके 'नीलकण्ठचम्पू', वेंकटाध्वरीके 'विश्वगुणादर्शचम्पू', अनन्तकविके 'चम्पूमारत', केशवभट्टके 'नृसिंहचम्पू', रामनाथके 'चन्द्रशेखरचम्पू', श्रीकृष्णकविके 'मन्दारमरन्दचम्पू' और पन्त विट्ठलके 'गजेन्द्र चम्पू' आदि ग्रन्थ दृष्टिमें आते हैं, जिनमें लेखकोंने अपनी अपर्व प्रतिभाका परिचय दिया है। इस अल्पकाय लेखमें समग्र ग्रन्थोंका परिचय दे सकना सम्भव नहीं है इसलिए नाममात्र देकर सन्तोष धारण किया है। इस प्रकार गद्य-पद्यात्मक चम्पूसाहित्यका बड़ा विस्तार है। दशम ईसवीय शतीके पूर्वकी चम्पू रचना मेरी दृष्टिमें नहीं आयी है।
पाठकों के हाथमें 'पुरुदेवचम्पू'का यह सुसज्जित संस्करण समर्पित करते हुए प्रसन्नता होती है। पुरुदेव, भगवान् वृषभदेवका नाम है । दक्षिण भारतमें इस नामका अब भी खूब प्रचार है । उन्हींके कथानकको लक्ष्यमें रखकर इस चम्पूकाव्यकी रचना हुई है। इसका सम्पादन श्रीमान् पं० जिनदास शास्त्री फड़कुले, सोलापरके द्वारा सम्पादित और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित संस्करणके आधारपर हआ है। इसके पाठभेदोंका संकलन ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन, ब्यावरसे प्राप्त हस्तलिखित प्रतिसे हुआ है। हस्तलिखित प्रतिका परिचय
यह प्रति श्रीमान् पं. हीरालालजी शास्त्रीके सौजन्यसे प्राप्त हुई थी। इसमें ८१ पत्र हैं, पत्रोंका आकार १।। ६ इंच है। प्रतिपत्रमें १२ पंक्तियाँ और प्रति पंक्तिमें ४८-४९ अक्षर है। अक्षर सुवाच्य हैं । लेखनसम्बन्धी अशुद्धियाँ हैं। नीचे टिप्पण भी दिया गया है । दशा अच्छी है। इसका सांकेतिक नाम 'क' है । यद्यपि पाठभेद अत्यन्त अल्प हैं तथापि जो हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं। द्वितीय स्तबकके अन्तमें ६५ और ६६वें श्लोकके बीचमें निम्नांकित श्लोक अधिक पाया गया है
क्रीडायुद्धे चकोराक्ष्या तया धूतायुधोऽप्यसौ ।
बभूव सहसा चित्रं घनचापलतामिव । इस प्रतिके आधारपर मुद्रित प्रतिके पाठ शुद्ध करने तथा छूटे हुए पाठोंके समावेश करने में बहुत सहायता प्राप्त हुई है। कथानायक
पुरुदेवचम्पके कथानायक भगवान् वृषभदेव हैं। वृषभदेव इस अवसर्पिणी कालके चौबीस तीर्थंकरोंमें आद्य तीर्थंकर थे। तृतीयकालके अन्तमें जब भोगभूमिकी व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमिकी रचनाका प्रारम्भ हो रहा था तब उस सन्धिकालमें अयोध्याके अन्तिम कुलकर श्री नाभिराजके घर उनकी पत्नी मरुदेवीसे इनका जन्म हआ था। यह जन्मसे ही विलक्षण प्रतिभाके धारक थे। कल्पवक्षोंके नष्ट हो जानेके बाद बिना बोये उपजनेवाली धानसे लोगोंकी आजीविका होती थी परन्तु कालक्रमसे जब वह धान भी नष्ट हो गयी तब लोग भूख-प्याससे अत्यन्त क्षुभित हो उठे और सब नाभिराजके पास जाकर 'त्रायस्व
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