Book Title: Pravachansara Saptadashangi Tika Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 3
________________ S eedomarates ने माग 07 090 eshablastND00mARMADURAISrawatanSARIUDHAJion ८५ रागदपमोहको इन चिन्हों के द्वारा पहिचान १०५ सत्ता और द्रव्य की अभिन्नता युक्ति कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना योग्य है १५० १०६ पशय और अन्यत्वका लक्षण २०० ८६ मोह क्षय करने के दूसरे उपायका विचार १५१ १०७ अतवभावका उदाहरण पर्वका स्पष्टीकरण ७ जिनेन्द्र के शब्द ब्रह्म में अर्थोकी व्यवस्था १०८ सर्वथाभाव अतद्भावका लक्षण नहीं है किस प्रकार है इसका विवेचन १०४ सत्ता और द्रव्य के गुण-गुणित्वको सिद्धि २०७ ८८ मोहक्षयके उपायभत जिनेश्वरोपदेशकी ११० गण और गणों के अनेकत्वका खण्डन प्राप्ति होने पर भी अर्थक्रियाकारी पुरुषार्थका १११ द्रव्यका सदुत्पार और असदुत्पाद होने में कर्तव्य १५५ अविरोध ८६ स्व-परके विवेककी सिद्धिसे ही मोहका क्षय ११२ अनन्यपना होने से सत्पादका निश्चय २१३ हो सकता है अत: स्वपरविभागसिद्धि के ११३ अन्यपना होने से असदुत्पादका निश्चय लिये प्रयत्न कराना ११४ एक ही द्रव्य में अन्यत्व और अनन्यत्वका ६० सबप्रकारसे स्वपरके विवेककी सिद्धि आगमसे अविरोध है करने योग्य है, इसप्रकारसे उपसंहार १५८ ११५ समस्त विरोधोंको दर करने वाली सप्तभंगी २१९ ६१ जिनेंद्रोक्त अर्यों के श्रद्धान बिना धर्मलाभ ११११६ जीवको मनुष्यादि पर्यायोंकी क्रियाफल रूप से अन्यताका कथन १२ साम्य का धमत्व सिद्ध करके मैं स्वयं ११८ मनुष्यादि पर्यायों में जीवके स्वभावका साक्षात् धर्म ही हैं ऐसे भाव में निश्चल पराभव किस कारण से होता है, उसका रहना निर्णय २---ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन ११६ जीवका द्रव्यरूप से अवस्थितपना होने पर भी ६३ पदायका सम्यक द्रव्यगणपर्याय स्वरूप १६५ पर्यायोंसे अनवस्थितपना २२७ १४ स्वसमय-परसमयकी व्यवस्था १६६ १२० जीवके अनवस्थितपने का कारण २२६ ६५ द्रव्यका लक्षण १२१ परिणामात्मक संसार में किस कारण से ६६ स्वरूपास्तित्व का वर्णन पदगलका संबन्ध होता है कि जिससे वह ६७ सादृश्य-अस्तित्वका कथन १७६ संसार मनुध्यादिपर्यावात्मक होता है इसका ६८ द्रव्यों से द्रव्यान्तरकी उत्पत्ति होने का और समाधान २३१ द्रव्य से सत्ताका अर्थान्तरत्व होने का खण्डन १८२ १२२ परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकतत्व २३३ है उत्यादब्ययनोव्यात्मक होने पर भी 'सत' १२३ व कौनमा स्वरूप है जिस रूप आत्मा द्रव्य है १८५ परिणनित होता है इसका कथन २३५ १०० उत्पाद, व्यय और प्रौव्यका परस्पर १२४ ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप वर्णन अविनाभाव १२७ कर उनको आत्मारूपसे निश्चित करना २७ १०१ उत्पादादिका द्रव्य से अर्थान्तरत्वका खण्डन १६० १२६ शुद्धात्मतत्त्वको उपलब्धिका अभिनन्दन १०२ उत्पादादिका क्षणभेद हटाकर द्रव्यत्वका द्योतन १६२ करते हुए द्रव्यसामान्यके वर्णनका उपसंहार २४० १०३ द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका अनेकद्रध्य १२७ द्रव्य के जीवाजीवत्वरूप विशेषका निश्चय पर्याय तथा एक द्रव्यपर्यायके दारा विचार १६५ १२८ द्रव्यके लोकालोकत्वरूप भेदका निश्चय २४६ २२५ R REASiskulsan uspesadi SPage Navigation
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