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प्रस्तावना
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के अध्ययन में प्राकृत का अध्ययन संस्कृत जैसा ही अपरिहार्य है । प्राकृत के अध्ययन के बिना आधुनिक आर्य भाषाओं की चर्चा पूर्ण नहीं हो पाती; इसलिए संस्कृत के साथ ही साथ मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं जैसे पालि, विभिन्न प्रकार की प्राकृत तथा अपभ्रंश का अवश्य अध्ययन किया जाना चाहिए । पालि की चर्चा भारतवर्ष में कई शतकों से लुप्त हो गई थी, लेकिन आजकल भारत में पालि के अध्ययन की व्यवस्था प्रारम्भ हो गई है । कलकत्ता विश्वविद्यालय इस विषय में पथ प्रदर्शक बना था । अब पालि की चर्चा भारत के अन्य विश्वविद्यालयों में पूर्णतया चालू हो गई है । मलि के मुख्य ग्रंथों के नागरी लिपि में संस्करण निकल गये हैं और हिन्दी में पॉलि के लिए विशेष उपयोगी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं; जैसे आनन्द कौसल्यायन जी की पुस्तकें और श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी को पुस्तकें |
परन्तु हिन्दी संसार में प्राकृतों को चर्चा प्रायः उतनी नहीं फैल पाई है । इसका एक मुख्य कारण यह था कि पालि जैसी ही प्राकृत की आलोचना भी हिन्दी भाषियों में प्रायः बन्द हो गई थी । संस्कृत नाटकों के अध्ययन के समय प्राकृत के अध्ययन की कुछ आवश्यकता अवश्य पड़ती थी परन्तु हमारे संस्कृत के विद्वान् केवल संस्कृत छाया के सहारे किसी प्रकार काम चला लेते थे । प्राकृत का गम्भीर अध्ययन कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता था । इसका एक अन्य कारण यह भी है कि पंजाब और राजस्थान को छोड़कर अन्य हिन्दी भाषी प्रदेशों में ऐसे जैन लोग संख्या में बहुत कम हैं जिनकी धार्मिक भाषा प्राकृत मानी जाती है; परन्तु राजस्थान तथा गुजरात में जैन लोग संख्या में गरिष्ठ न हों, परन्तु भूयिष्ठ हैं और इनमें जैन यति और मुनि तथा अन्य विद्वान् बहुत संख्या में मिलते हैं, जो अपने धार्मिक विचार और शास्त्राध्ययन में निरन्तर व्यापृत रहते हैं और इन विषयों में जैसे प्राकृत धार्मिक तथा साहित्यिक ग्रंथों के संशोधन
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