Book Title: Prakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 18
________________ बाहर की वस्तुओं का अभाव अथवा सद्भाव दुःख-सुख नहीं देगा । आत्मसुख के लिए ही मनुष्य स्वार्थी बनकर दूसरों के साथ अन्याय करता है; अतः जैन दर्शन ने सभी आत्माओं में समानता का उद्घोष कर इस समस्या के निराकरण का प्रयत्न किया है । अनेकान्त द्वारा आज के मानव की अज्ञान - की समस्या का भी समाधान हो सकता है। वह संसार के बहुआयामी स्वरूप से परिचित हो सकता है । वैचारिक उदारता की प्राप्ति से वह एक विवेक-संपन्न वैज्ञानिक हो सकता है और इस तरह जबविज्ञान की प्रगति से सही दृष्टिकोण जुड़ जाएगा, उससे प्राणिमात्र - का हित संबद्ध हो जाएगा तब हिंसा का वातावरण स्वयमेव नष्ट हो जाएगा। विज्ञान और अहिंसा के इस मेल से ही मानवता का कल्याण संभव है । जैनधर्म एवं आधुनिक विश्व के परिप्रेक्ष्य में विगत दशक में संगोष्ठियों व्याख्यानों एवं विभिन्न पाठ्यक्रमों के माध्यम से देश-विदेश में पर्याप्त कार्य हुआ है। जैनधर्म को पर्यावरण संतुलन के साथ जोड़कर भी चिन्तन किया गया है। इस विषय पर विद्वानों ने शोध-प्रबन्ध भी लिखे हैं । कतिपय स्वतन्त्र पुस्तकों का लेखन / प्रकाशन भी हुआ है। इस सबका पूर्ण विवरण दे पाना तो यहाँ संभव नहीं है। फिर भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर 20 वीं सदी के अंतिम दशक में सम्पन्न प्राकृत और जैनधर्म के अध्ययन का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है । " Jain Education International प्राकृत एवं जैनविद्या के क्षेत्र में शोध-प्रबन्ध " कोई प्रामाणिक सूची , प्राकृत, अपभ्रंश और जैनविद्या पर शोध - उपाधियों यथा - पीएच. डी., डी. लिट्., विद्यावाचस्पति विद्यावारिधि, डी. फिल् लघु शोधप्रबन्ध ( एम. ए. एवं एम. फिल् के डेजर्टेशन के रूप में ) आदि उपाधियों हेतु अनेक शोध-प्रबन्ध विभिन्न विश्वविद्यालयों में लिखे गये पर पहले उनकी प्रकाशित नहीं हुई थी। भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने प्राच्य विद्या सम्मेलन, वाराणसी के अवसर पर एक जैन संगोष्ठी का आयोजन 1968 में किया था और ज्ञानपीठ पत्रिका का अक्टूबर 1968 का अंक, संगोष्ठी अंक के रूप में निकला था; जिसमें शोधकार्य तथा शोधरत छात्रों की सूची प्रकाशकों, विद्वानों आदि का परिचय दिया गया था । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ( उ० प्र० ) से डॉ. सागरमल जैन एवं डॉ. अरुण प्रताप सिंह के सम्पादकत्व में सन् 1983 में एक सूची Doctoral Dissertations in Jaaina and Buddhist Studies के नाम से प्रकाशित हुई थी। इसी प्रकार डॉ. गोकुलचन्द जैन, वाराणसी ने एक सूची संकाय पत्रिका सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के श्रमणविद्या अंक 1983 ई. में छापी थी। पर इसके बाद आगामी संस्करण नहीं निकले। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन " · For Private & Personal Use Only . " 17 www.jainelibrary.org

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