Book Title: Prakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 41
________________ वैदुष्यपूर्ण सारगर्भित व्याख्यान प्रदान किये । जैनधर्म द्वारा लोकभाषा की प्रतिष्ठा विषयक अपने प्रथम व्याख्यान में डॉ. ने देश के भाषायी, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं भाषावैज्ञानिक परम्परा का विशद परिचय देते हुए लोकभाषा का स्वरूप एवं महत्व रेखांकित किया तथा बताया कि जैनाचार्यो ने लोकभाषा को अपने साहित्य में अपनाकर उसे साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान की है। इसके पोषण में उन्होंने अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये । विविध प्राकृतें एवं शौरेसनी प्राकृत विषयक अपनें द्वितीय व्याख्यान में डॉ. तिवारी ने स्पष्ट किया कि सभी प्राकृतों में शौरसेनी प्राकृत जो कि बाद में दिगम्बर जैनों के आगमों की भाषा बनी और जिसका नाटककारों ने सर्वाधिक प्रयोग किया नारायण श्रीकृष्ण से भी पूर्व इस देश में " प्रचलित थी । नारायण श्रीकृष्ण का जन्म ही उस शूरसेन प्रदेश में हुआ था जहाँ की भाषा शौरसेनी प्राकृत थी । द्वितीय दिन के व्याख्यानसत्र की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के भाषाविभाग के अध्यक्ष प्रो. प्रेमसिंह ने की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने शौरेसनी प्राकृत के साहित्य का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद कर उसके व्यापक प्रचार-प्रसार की प्रेरणा दी । · प्राकृत भाषा दिवस पर पारित प्रस्ताव 3 जून 1995 को श्रुतपंचमी - प्राकृतभाषादिवस के सुअवसर पर श्री कुन्दकुन्द भारती नई दिल्ली के तत्वाधान में आयोजित देशभर के प्राकृतभाषा के विद्वानों एवं विद्यानुरागियों के सम्मेलन में प्राकृतभाषा एवं साहित्य की समुन्नति के लिए निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत कर भारत सरकार से उनको लागू करने के लिए प्रेषित किये गये 40 1 :- प्राकृत भाषा इस दकेश की प्राचीनतम जनभाषा है, इसका साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। किन्तु इसके मानविकी, कला और विज्ञान - सम्बन्धी साहित्य के समीचीन प्रचार- प्रसार, अध्ययन - अनुशीलन और शोध - खोज की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है । अतः यह सम्मेलन भारत सरकार से यह अनुरोध करता है कि अन्य भाषाओं की अकादमियों की तरह भारत सरकार द्वारा अपने राष्ट्र की प्राचीनतम जनभाषा - प्राकृत के व्यापक प्रचार- प्रसार और सम्यक् मूल्यांकन हेतु राष्ट्रीय प्राकृतभाषा अकादमी की स्थापना की जाय । 2 :- भारतीय संविधान में 14 भाषायें परिगणित की गई हैं । कुछ दिन पूर्व इस सूची में वृद्धि होकर नेपाली, कोंकणी एवं मणिपुरी को जोड़कर यह संख्या 17 हो गई है। किन्तु इस राष्ट्र की प्राचीनतम जनभाषा प्राकृत अब भी उपेक्षित है । निरन्तर उपेक्षा के कारण देश की इस मूलभाषा प्राकृत का साहित्य प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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