Book Title: Prakrit Vyakaran Praveshika
Author(s): Satyaranjan Banerjee
Publisher: Jain Bhavan

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४ www.kobatirth.org प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०. पद के मध्यस्थित अथवा अनादि और असंयुक्त "ठ" को "ढ” हो जाता है । यथा - मठ:- मढो, शठः- सढो, कमठ: - कमढो, कुठारः- कुढारो, पठति पढइ । ११. प्राकृत में पद के मध्यस्थित अथवा आदि असंयुक्त दन्त्य “न” मूर्धन्य "ण" हो जाता है । यथा - नरः - णरो, नदी - णई, नयति- इ, कनकम्कणयं । क) यदि आदि में दन्त्य "न" हो तो वही दन्त्य "न" वैसे ही रह सकता है अर्थात् आदि में दन्त्य "न" हो सकता है । इसलिए नदी-नई, 1 ई, भी हो सकता है । मन्तव्य : वस्तुतः प्राकृत में आदि और अनादि, संयुक्त जैसे स्थलों पर मूर्धन्य “ण” होता है । अतएव प्राकृत में सभी स्थानों पर मूर्धन्य का ही प्रयोग करना चाहिए । किन्तु हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में लिखा है कि आदि दन्त्य "न" प्राकृत में हो सकता है । किन्तु अन्यान्य व्याकरण में लिखा है कि आदि और अनादि, संयुक्त और असंयुक्त सभी स्थलों पर मूर्धन्य “ण” होना चाहिए | हेमचन्द्राचार्य द्वारा जो कहा गया, उसके पीछे ऐतिहासिक विशेषता है । वस्तुतः अर्ध-मागधी भाषा में आदि स्थित दन्त्य "न" हो सकता है । इसी के साहित्य का प्रभाव प्राकृत भाषा पर भी आ गया । इसलिए सम्भवतः हेमचन्द्राचार्य ने ऐसा नियम बनाया है । १२. प्राकृत में आदि य को ज होता है । यथा - यश:- जसो, यम:जमो, याति - जाइ । १३. प्राकृत में तालव्य "श" मूर्धन्य " ष" के स्थान पर दन्त्य "स” होता है । यथा-शब्दः- सद्दो, दश-दंस, शोभते सोहइ, कषायः-कसाओ, किन्तु मागधी प्राकृत में दन्त्य "स" के स्थान पर तालव्य "श" होता है । यथा मनुष्यः- मणुश्शो, पुरुषः - पुलिशो | ४. य-श्रुति प्राकृत में य-श्रुति होती है । य-श्रुति की उत्पति किसी व्यंजन वर्ण के लोप के कारण से होती है । संस्कृत के आधार पर हम लोग जब विचार करते हैं तब देखते हैं कि कोई व्यंजन वर्ण जब अनादि अवस्था में होता है तब उसका कभी लोप होता है कभी नहीं भी होता है । जब लोप For Private and Personal Use Only

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