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प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
य-श्रुति के विषय में केवल यही कहना है कि उपर्युक्त जो वर्ण है उसका लोप होने की बाद जो स्वर ध्वनि रह जाती है वहीं स्वर ध्वनि रहन चाहिए । यो यह ध्वनि लगाना सुनने के कारण से होती है । शायद अर्धमागधी महावीर के समय में कथ्य भाषा के रूप में थी, इसलिए अर्धमागधी में सबसे ज्यादा इस श्रुति का प्रयोग होता है । य-श्रुति का यही निष्कर्ष है । ५. संधि
संधि प्राकृत में बहुत सरल है । संस्कृत की तरह ऐसी जटिल नहीं है । संस्कृत संधि के बहुत नियम प्राकृत में नहीं चलते हैं । प्राकृत में संधि के नियम निम्नलिखित प्रकार से हैं ।
१. ह्रस्व और दीर्घ स्वर तथा दीर्घ और ह्रस्व स्वर मिलकर एक गोष्ठीय दीर्घ स्वर होते हैं । अर्थात् अ + अ / अ + आ अथवा आ + आ / आ + अ-आ होता है । इ + इ / इ + ई अथवा ई + इ / ई + ई = ई होती है । उ + उ / उ + ऊ अथवा ऊ + उ / ऊ + ऊ ऊ होता है । उदाहरण के तौर पर - देव + आलय = देवालय । चक्क + आअ = चक्काअ । इसि + इसि इसीसि | सु + उरिस = सूरिस |
२. प्राकृत में अ / आ + इ / ई और अ / आ + उ / ऊ दोनों मिलकर क्रमशः ए और ओ होते हैं । जैसे- दिन + ईस = दिनेस, पुहवी + ईस पुहवीस, अन्त + उवरि अन्तोवरि ।
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२. क ) किन्तु जब एकार और ओकार के बाद संयुक्त वर्ण रहता है, तब एकार के स्थान पर "इ" और ओकार के स्थान पर "उ" होता है । यथा- दणुअ + इंद= दणुएंद, दणु-इंद | गह + उल्लिहण = णहोल्लिहण, हुलिहण |
मन्तव्य : एकार और ओकार का ह्रस्व रूप इकार और उकार होता है। इसलिए संयुक्त वर्ण के पहिले एकार और ओकार क्रमशः इकार और उकार हो गया । अगर संयुक्त वर्ण के पहिले एकार और ओकार रहेंगे तब वही एकार और ओकार के ह्रस्व माने जाते हैं अर्थात् वही ए व ओ का हम लोग प्राकृत में ह्रस्व मानते हैं । यथा- पिंड पेंड, तुंड-तोंड़ । ये ए और ओ प्राकृत में ह्रस्व हैं । यद्यपि ए और ओ का वास्तविक रूप दीर्घ ही है ।