Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
ॐ
www.kobatirth.org
www.
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रोफेसर डॉ सत्यरंजन बनर्जी
॥ जैन भवन ॥ कलकत्ता
For Private and Personal Use Only
Presente
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
प्रोफेसर डॉ. सत्यरंजन बनर्जी एम्, ए, पी एच डी (कलकत्ता),
पी एच डी (एडिन्व्यूरो) प्राकृत-विद्या-मनीषी (जैन विश्व भारती) भूतपूर्व प्रोफेसर, कलकत्ता विश्वविद्यालय
जैन भवन कलकत्ता
For Private and Personal Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
प्रकाशक :
जैन भवन
पी. २५ कलाकार स्ट्रीट
कलकत्ता
७००
-
600
प्रथम संस्करण : मई १९९९
मूल्य : बीस रुपये
टाईप सेटिंग : कम्पू लेजर ग्राफिक्स ९, श्रीमानी घाट लेन रिसड़ा - ७१२२४८, हुगली
मद्रक :
श्री विभास दत्त अरुणिमा प्रिंटिंग वर्कस
८१, शिमला स्ट्रीट
कलकत्ता- ७०० ००६
www.kobatirth.org
For Private and Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रस्तावना
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका लिखने का अपना एक इतिहास है । विगत मई १९८९ में जब मैं कलकत्ता से लाडनूं आया, तब आचार्य श्री तुलसी ने मझे आदेश दिया प्राकृत कार्यशाला आयोजित करने के लिए । आचार्य श्री के निर्देश को मैंने आशीर्वाद के रूप में स्वीकार किया । इसी आशीर्वाद के फलस्वरूप यह प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका आज आपके हाथों में है।
यह ग्रंथ प्राकृत सीखने के लिए प्रारम्भिक परिचय है । प्राकृत कार्यशाला केवल उन्हीं विद्यार्थियों के लिए है, जो प्राकृत नहीं जानते हैं । इसलिए इसमें केवल प्राकृत भाषा के जो मख्य-मख्य नियम हैं उसी के आधार पर यह प्रवेशिका विरचित हुई है । जो अधिक प्राकृत भाषा का ज्ञान जानते हैं उनके लिए यह ग्रंथ सामान्य सा हो सकता है।
भाषा सीखने के तीन स्तर हैं- प्रारम्भिक, माध्यमिक और उच्च । प्रारम्भिक पढ़ने के बाद मध्यम स्तर में प्रवेश होता है । मध्यम स्तर में भाषा के अन्य विषयों पर ध्यान देना होता है । प्रारम्भिक स्तर से अधिक नियम और व्याकरण इसमें आते हैं । उच्चस्तर में इससे भी अधिक व्याकरण, भाषा-तत्व के गूढ़ तथ्य, भाषा की वाक्य रीति इत्यादि विषयों पर अधिक ध्यान देना आवश्यक होता है । इन सभी स्तरों पर भाषा का साहित्य भी पढ़ाना पड़ता है और साहित्य से व्याकरण की व्याख्या भी करनी पड़ती है। इसलिए प्रारम्भिक स्तर में व्याकरण की आवश्यकता इतनी नहीं होती है कि जिससे प्रारम्भिक छात्रों को बहत कठिनाई हो । इसी आधार पर यह प्रवेशिका अत्यन्त संक्षिप्त रूप में लिखी गई है । आशा है इससे प्राकृत भाषा का ज्ञान करने में सहयोग मिलेगा।
यह प्रवेशिका वस्तुतः कक्षा में विद्यार्थियों की सुविधा के लिए तैयार कर वितरित किए गए अध्यायों का संकलन है । यह ज्ञान हर विद्यार्थी को भविष्य में प्राकृत भाषा पढ़ने हेतु सुविधा देगा।
For Private and Personal Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आरम्भ में यह प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका तित्थयर के खण्ड २१ अंक ८, ९, १०, ११, १२, वर्ष १९९७, १९९८ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो चुकी है। पठन की सविधा के लिये जैन भवन ने इन लेखों को आकलन कर पस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया । इस कार्य को साकार करने में जैन भवन के सचिव श्री पवित्र कमार जी दगड़ एवं सह सचिव श्री दिलीप सिंह जी नाहटा ने महत्वपूर्ण सहयोग दिया । इस कार्य की पूर्णता तित्थयर की संपादिका श्रीमती लता बोथरा के अथक परिश्रम एवं सहयोग के बिना असंभव थी । इस पूरी परियोजना के पीछे उनकी सार्थक परिकल्पना का भी महत्वपूर्ण हाथ रहा है । उनके इस योगदान के लिये मैं उनका आभारी हूँ। पर आभार प्रकट करने के स्थान पर उनको आशीर्वाद देता हूँ कि वे अपने निर्दिष्ट कार्य में सदा सफल होकर पत्रिका का नाम उज्जवल करें।
इस प्राकृत व्याकरण में जितने नियम अति संक्षिप्त हो सकते थे उतने ही दिये गये हैं । आशा है ये किताब पढ़ करके प्राकृत जिज्ञासु लोग बहुत ही लाभान्वित होंगे ।
इति श्री सत्यरंजन बनर्जी
For Private and Personal Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विषय सूची
ध्वनि तत्त्व १. प्राकृत वर्णमाला और उसकी उच्चारण रीति ।
अनस्वार, अननासिक और विसर्ग । ३. ध्वनि परिवर्तन के नियम । ४. य-श्रुति । ५. संधि । ६. संयुक्त वर्ण के नियम ।
रूपतत्त्व
७. विशेष्य (वचन, लिंग, कारक, कारक-विभक्ति, शब्द रूप) । ८. विशेषण (तर, तम इत्यादि और संख्यावाचक) ।
सर्वनाम (अस्मद्, युष्मद्, तद्, इदम्, एतद् यद्, अदस्, किम, सर्व) । क्रिया (धातु, पुरुष, वचन, वाच्य, क्रिया का भाव- (निर्देशक, विध्यर्थक, अनुज्ञाज्ञापक, क्रियातिपत्ति), काल- (वर्तमान, भूत,
भविष्यत्), तुमर्थक, शतृ-शानच्, असमापिका क्रिया (त्वा) । ११. क्रिया विशेषण । १२. अनन्वयी (उपसर्ग) । १३. संयोजक । १४. अन्तर्भावार्थक (मनोभाव प्रकाशक शब्द) ।
For Private and Personal Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
ध्वनि तत्त्व (Phonology)
मखबन्ध
प्राचीन भारतीय संस्कृति का स्वरूप तीन भाषा में है । इन तीनों भाषाओं का नाम है - संस्कृत, पालि और प्राकृत । संस्कृत भाषा में मूलतः हिन्दु शास्त्र की परम्परा की खोज मिलती है । पालि भाषा में बौद्ध धर्म और दर्शन का स्वरूप मिलता है । प्राकृत भाषा में जैन धर्म और संस्कृति का एक परिचय है । प्राचीन भारत के लिए इन तीनों भाषाओं की उपयोगिता है ।
प्राकृत साहित्य अति विशाल है । प्राकृत एक साधारण नाम है । इस भाषा में माहाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रंश भाषा है । उपर्युक्त भाषा को छोड़कर और भी एक भाषा है जिसका नाम है अर्धमागधी । अर्धमागधी भाषा में जैन आगम शास्त्र लिखा हुआ है । किन्तु प्राकृत भाषा का एक साधारण रूप है जो कि हर उपभाषा में भी दिखाया जाता है । इसलिए हम लोग केवल प्राकृत भाषा का साधारण रूप देखते हैं । विशेष रूप केवल वही है जो साधारण रूप में मिलता नहीं है । इस तरह कछ रूप और विशेषताएँ प्राकृत उपभाषा में मिलते हैं । नीचे हम लोग केवल प्राकृत भापा का साधारण रूप देखेंगे जो सब उपभापाओं में भी मिलता है।
१. प्राकृत भाषा की वर्णमाला
प्राकृत में निम्नलिखित वर्णमाला हैस्वरवर्ण : अ आ इ ई उ ऊ ए ओ
For Private and Personal Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
व्यंजनवर्ण : क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व स ह । विशेष दृष्टि में मागधी प्राकृत में तालव्य श है । उच्चारणरीति :
प्राकृत वर्णमाला का उच्चारण सम्भवतया संस्कृत भाषा की तरह होता है । इसलिए हम लोग इसके उच्चारण के बारे में साधारणतया ज्यादा नहीं जानते । लेकिन बीच में अगर किसी का उच्चारण संस्कृत से भिन्न होगा तो वह तत्तत् स्थल पर कहूंगा । तथापि निम्नलिखित विषय पर ध्यान देना आवश्यक है
१. प्राकृत में ऋ ऋ लू लू नहीं होता है । इसके स्थल पर अ इ उ रि होता है । साधारणतया ऋ के स्थल पर अ होता है । इ और उ विशेषविशेष शब्दों में होते हैं । किस नियम से ये सब परिवर्तन होता है, ये बताना काफी मश्किल है। लेकिन परम्परा से यही मिलता है कि ओष्ठयवर्ण के साथ जब ऋ का संयोग होता है तब उ होना जरूरी है । यथा ऋप भ> प्राः वुसह/उसह होता है। किन्तु मृत>प्राः मअ होता है । इस तरह सभी जगह पर होगा।
२. प्राकृत में ऐ औ नहीं होता है । उसकी जगह पर ए और ओ होता है।
३. प्राकृत में आदि में न होता है|य के स्थल पर भी ज होता है । यथा यदि प्रा. में जइ होता है। किन्त मागधी प्राकृत में सभी जगह पर य होता है । मागधी में कभी भी ज नहीं होता है ।
४. प्राकृत में सर्वत्र मूर्धन्य ण होता है । चाहे संयक्त से या असंयक्त हो, सर्वत्र मूर्धन्य होता है । लेकिन अर्धमागधी प्राकृत में आदि में और संयक्त में दन्त्य न होता है । यथा राज्ञा प्राकृत में रण्णा, अर्धमागधी में रन्ना
For Private and Personal Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुस्वार, अनुनासिक और विसर्ग
I
होता है । विशेष उपभाषा में कुछ-कुछ विशेषता है । वह भी बताने की जरूरत नहीं है ।
९
५. प्राकृत में तालव्य श मर्धण्य ष नहीं होता है । केवल दन्त्य स होता है । किन्तु मागधी प्राकृत में केवल श होता है । यथा मनुष्य प्रा. मणुस्स मागधी में मणुश्श ।
1
६. प्राकृत में भिन्न वर्गीय वर्णों का संयुक्त वर्ण नहीं होता हैं । इसका मतलब यही है कि एक ही वर्ण के साथ संयुक्त वर्ण होता है । जैसे क का क ख इत्यादि रूप से संयुक्त वर्ण होता है । किन्तु संस्कृत में क के साथ जैसे तकात संयुक्त होता है वैसा प्राकृत में कभी नहीं होता है । सभी जगह पर इस तरह का अध्ययन होना चाहिए ।
1
७. प्राकृत में विसर्ग नहीं होता है । उसकी जगह पर दो तरह का रूप मिलता है । यदि अन्तिम में अकारान्त शब्द के स्थान पर और शब्द के बाद विसर्ग होता है तो उस विसर्ग के स्थल पर ओ होता है । जैसे- सर्वतः प्राकृत में सव्वओ होता है । अगर विसर्ग के बाद कोई वर्ण होता है तो उसका द्वित्व हो जाता है । जैसे दुःख प्राकृत में दुक्ख होता है ।
८. प्राकृत में म् के स्थल पर अनुस्वार होता है। चाहे वह वाक्य शेष हो और श्लोकावशेष हो उसके ऊपर एक दृष्टि डालना आवश्यक है ।
९. पंचम नासिक्य वर्ण के साथ किसी वर्ण का संयुक्त अक्षर यदि हो तब वही नासिक्य वर्ण के स्थल पर अनुस्वार होता है । जैसे - वंकिम । किन्तु कभी-कभार किसी व्याकरण में पंचम नासिक्य वर्ण की भी उपस्थिति होती है । उसी के अनुसार वङ्किम भी चलता है । लेकिन खास प्राकृत में ऐसा होना ठीक नहीं है । प्राकृत व्याकरण में यद्यपि इसके बारे में दोनों रूप को ही स्वीकार किया है तब भी अनुस्वार लिखना ही उचित है ।
१०. ऊपर में उल्लिखित नियमावली प्राकृत भाषा सीखने के लिए काफी जरूरी है । विशेष - विशेष उपभाषा में इसका कुछ व्यतिक्रम दिखाया जाता है । लेकिन वह तत्तत् स्थल पर बताना उचित होगा ।
For Private and Personal Use Only
२. अनुस्वार, अनुनासिक और विसर्ग
प्राकृत में अनुस्वार, अनुनासिक और विसर्ग के प्रयोग के विषय में कुछ विशेषताएँ हैं । साधारणतया जैसे संस्कृत में होते हैं प्राकृत में ऐसा नहीं
है ।
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१०
www.kobatirth.org
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अनुस्वार
प्राकृत ' में शब्द के अन्त का "म्" अनुस्वार होता है अर्थात् सर्वम् प्रा. सव्वं होता है | चाहे वाक्य के अन्त में और पद के प्रथम चरण के अन्त में “म्” के स्थान पर केवल अनुस्वार ही होता है । किन्तु म् के बाद जब स्वर वर्ण होता है तब म् उसी वर्ण स्वर के साथ जुड़ जाता है । परन्तु यहां पर भी अनुस्वार हो सकता है अर्थात् “म्" के स्थान पर अनुस्वार भी होता है, इसका अर्थ म् के बाद प्राकृत में दो तरह का रूप होता है ।
१. “म्” के स्थान पर चाहे स्वर वर्ण और व्यंजन वर्ण हो अनुस्वार ही होता है । जैसे कि सव्वं अहं करेमि अर्थात् सव्वं के बाद यद्यपि अहम् शब्द है तब भी सव्वं अनुस्वार होगा ।
२. कभी कभी “म्” के बाद अगर स्वर वर्ण हो तो ओ " म्" स्वर के साथ जुड़ जाता हैं । अर्थात् सव्वं " म्” अहं करेमि इसका रूप प्राकृत में सव्वमहं करेमि हो सकता है ।
३. वर्ग का जो पंचम नासिक्य वर्ण होता है उसके स्थान पर भी अनुस्वार होता है अर्थात् शब्द के बीच में जब वर्गीय नासिक्य वर्ण होता है तब उसके स्थान पर भी अनुस्वार होता है । वर्गीय पंचम नासिक्य वर्ण ये है- ङ्, ञ, ण्, न्, म् । यथा पंक, संख, अंगण लंघण, कंचए, लंहण, अंजीऐ, कंटओ, उक्कंठा, कंड, संढो, अंतरं, पंथो, चंदो, बंधवो, कंपइ, वंफइ कलंबो, आरंभो इत्यादि । इन सभी स्थानों पर वर्ग का पंचम नासिक्य वर्ण हो सकता है । अर्थात पङ्क, कञ्चअ, कण्टअ अन्तर सम्पर इत्यादि ।
प्राकृत व्याकरणों ने वर्गीय नासिक्य वर्ग के विषय में विकल्प विधि दी है । अर्थात् दो तरह का वर्ण हम लोगों के समक्ष उपस्थित होता है, तब भी यही मालूम होता है कि प्राकृत में केवल अनुस्वार होना ही अच्छा है । वस्तुतः यही है कि जहां वर्गीय नासिक्य वर्ण होता है वहां हम लोग ऐसा समझेंगे कि उस वर्णन पर संस्कृत का प्रभाव ज्यादा है । इसलिए पङ्क, कञ्चअ, कण्ठअ, अन्तर सम्पर प्राकृत में आ गए। लेकिन वास्तव में इन सभी के स्थानों पर केवल अनुस्वार ही होना चाहिए ।
7
कुछ शब्द ऐसे हैं जिसके साथ अनस्वार होने के बाद दीर्घ स्वर वर्ण का ह्रस्व हो जाता है । जैसे कि माला - मालं, नई-नई बहू - बहुं, इत्यादि । अनुस्वार के विषय में केवल इतना ही समझना उचित है कि वर्गीय पंचम नासिक्य वर्ण और म् के बाद सभी जगह पर अनुस्वार होना ही ठीक है ।
For Private and Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विसर्ग
अनुनासिक वर्ण
प्राकृत में अनुनासिक वर्ण ज्यादा नहीं होता है । वर्गीय पंचम वर्ण तथा "म्" ही केवल अनुनासिक वर्ण के रूप में प्रचलित हो सकता है । इसका तात्पर्य यही है कि जहां हम लोग अननासिक वर्ण देखेंगे वहां हम लोग वर्गीय नासिक्य वर्ण की उपलब्धि करेंगे । किसी वर्ण के साथ इस तरह नासिक्य वर्ण के स्थान पर अननासिक वर्ण आ गया जैसे यमना-जउँणा, चामण्डा-चाउँण्डा, कामक-काउँओ, अतिमक्तक-अणिउँतय इत्यादि ।
केवल शब्द में ही नहीं कोई विभक्ति में भी नासिक्य वर्ण के स्थान पर अननासिक वर्ण होता है । जैसे- हि, हिं, हिं।। - प्राकृत में नासिक्य वर्ण का प्रयोग ज्यादा नहीं होता है इसलिए ज्यादा शब्द भी नहीं मिलते हैं । लेकिन अपभ्रंश में ज्यादा नासिक्य ध्वनि मिलती हैं । जैसे
अग्गिएँ उण्हउ होइ जगु वाएँ सीअल तेवँ । जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उण्हत्तणु केवँ । विसर्ग
प्राकृत में विसर्ग कभी नहीं होता है । अर्थात् विसर्ग का प्राकृत में लोप होता है । विसर्ग की दो तरह की प्रतिक्रिया होती है
१. जब अकारान्त शब्द के बाद विसर्ग होता है तो विसर्ग के स्थान पर ओ होता है । जैसे सर्वतः प्राकृत में सबओ होता है । नरः > णरो, प्रायः > पाओ इत्यादि ।
२. अगर शब्द के बीच में विसर्ग होता है तो विसर्ग के स्थान पर जिस शब्द के पूर्व विसर्ग है उसका द्वित्व हो जाता है अर्थात् वह वर्ण पन: आ जाता है । जैसे दःख । ख के पूर्व विसर्ग है इसलिए विसर्ग के स्थल पर ख का आगम अथवा ख का द्वित्व होता है । अर्थात् दःख शब्द प्राकृत में दक्ख होता है । प्राकृत में दो महाप्राण वर्ण का संयुक्त वर्ण नहीं होता है । इसलिए एक वर्ण का अल्पप्राण होगा क्योंकि दो महाप्राण वर्ण साथ-साथ उच्चारण करने में कठिनाई होती है । इसलिए एक वर्ण अल्पप्राण हो जाता है । साधारणतया प्रथम जो महाप्राण वर्ण होता है उसका ही अल्पप्राण हो जाता है । अतएव दुःख प्राकृत में दुक्ख होता है । यह नियम प्राकृत में सभी संयुक्त वर्ण पर लागू होता है ।
For Private and Personal Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१२
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
कभी ऐसा लगता है कि कुछ विभक्तियां ऐसी हैं कि ओ संस्कृत का तस् ( = तः ) प्रत्यय से आया हुआ है । जैसे वच्छाओ वास्तव में संस्कृत वृक्षत: रूप से आया है । इसलिए पंचमी की एक विभक्ति है ओकारान्त । जैसे वच्छाओ ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३. ध्वनि - परिवर्तन
प्राकृत में ध्वनि का परिवर्तन दो तरह होता है । (१) स्वर का (२) व्यंजन का । स्वर में कुछ स्थलों पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व होता है । व्यंजन में भी कुछ-कुछ व्यंजन-ध्वनि का लोप होता है । कुछ-कुछ व्यंजन ध्वनि का परिवर्तन भी होता है । इस विषय में कुछ नियम सूत्र रूप में वर्णित हैं
I
:
(क) स्वर वर्ण का परिवर्तन
१. प्राकृत में संयुक्त वर्ण का पूर्व वर्ण ह्रस्व होता है अर्थात् संयुक्त वर्ण पूर्व अक्षर दीर्घ अर्थात् आ, ई, ऊ, होता है तब अ, इ, उ, हो जाता है । (क) आ-अ-आम्रम् - अम्बं,
यथा-
ताम्रम्-तम्बं ( ख ) ई - इ - मुनीन्द्रः मुणिन्दो, तीर्थम् - तिर्थं ( ग ) ऊ - उ - चूर्ण: चुण्णो, ऊर्मि - उम्मि
२. यदि संयुक्त वर्ण का पूर्व वर्ण ए व ओ होता है तब ए व ओ का ह्रस्व रूप इ व उ होता है अर्थात् नरेन्द्रः- नरिन्दो, म्लेच्छः- मिलिच्छो । अधरोष्ठः-अहरुट्ठो, नीलोत्पलम् - नीलुप्पलं ।
३. यदि संयुक्त वर्ण का पूर्व ए व ओ होता है तब उसी ए व ओ को हमलोग ह्रस्व मानेंगे अर्थात् संयुक्त वर्ण के पूर्व ए व ओ ह्रस्व हो जाते हैं । जैसे ग्राह्यं-गेज्झं, पिण्डं-पेंडं, तुण्ड-तोंडं, पुष्कर-पोक्खर । इन सभी उदाहरणों में यद्यपि ए, ओ लिखा गया है, पर ये ए, ओ ह्रस्व है । वस्तुतः ए, ओ दीर्घ है लेकिन संयुक्त वर्ण के साथ रहने के कारण ये हस्व हो गए हैं ।
४. प्राकृत में संयुक्त वर्ण में एक का लोप होने पर पूर्व स्वर दीर्घ हो जाता है । यथा- पश्यति परसइ > पासइ, कश्यपः > कस्सवो > कासवो, विश्रामः > विस्सामो> वीसामो, मिश्रम् > मिस्सं मी, अश्वः > अस्सो > आसो, विश्वासः > विस्सासो> वीसासो, शिष्यः > सिस्सो > सीसो इत्यादि ।
५. (क) ऋ वर्ण का प्राकृत में अ, इ, उ और रि होता है । यथ ऋ>अ। घृतम्-घयं, तृणम्-तणं, कृतम् - कथं, वृषभः- वसहो, मृगः-मओ इत्यादि ।
For Private and Personal Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
व्यंजन का नियम
ऋ > इ । कृपा-किवा, हृदयम्-हिययं, भृङ्गारः - भिंगारो, श्रृगालः- सिआलो
इत्यादि ।
ऋ > उ । ऋतुः-उऊ, पृष्ठ: - पुट्ठो, पृथिवी - पुहई, वृतान्तः- वुत्तन्तो, वृन्दं दं इत्यादि ।
१३
ॠ > रि । ऋद्धिः - रिद्धि, ऋक्ष:- रिच्छो, ऋषिः - रिसी आदि ।
नियम
।
(ख) कभी - कभी ॠ के स्थान पर आ, ए, और ढि भी होता है । यह बहुत से शब्दों पर लागू नहीं है । लेकिन कुछ शब्दों पर इसका प्रभाव है । यथा- कृशा - कासा मृदुकं - माउक्कं, मृदुत्वं- माउक्कं गृहं गेहं आदृतआढिओ ।
,
1
( ग ) संस्कृत का ऋकारान्त शब्द प्राकृत में तीन प्रकार का होता है । अर, आर और उ । संस्कृत पितृ शब्द प्राकृत में पिअर और पिउ होता है । ६. प्राकृत में ऐ और औ के स्थान पर ए व ओ होता है । यथा-शैल:सेलो, त्रैलोक्यं-तेलोक्कं, कैलाशः- केलासो, कौमुदी - कोमुई, यौवनं - जौव्वणं, कौशाम्बी - कोसम्बी ।
(ख) व्यंजन का नियम
७. पद के मध्य स्थित अथवा अनादि और असंयुक्त क-ग-च-ज-त-दप-य-व प्राकृत में प्रायशः लोप होता है । यथा - ( क ) - तीर्थकर : तित्थयरो, लोकः- लोओ, शकटं-सअडं । (ग) नगः-नओ, नगरं नयरं, मृगांक:- मयंको । (च) शची - सई, काचगृह:- कयग्गहो, (ज) रजतं - रययं प्रजापतिः - पयावई, गजः- गओ । (त) वितानं - विआणं, रसातलं- रसाअलं, जाति:- जाई । (द) गदा-गया, मदनः-मयणो । (प) रिपुः- रिऊ, सुपुरुषः- सुउरिसो, (य) दयालुःदआलू, दयालू, नयनं-नअणं- नयणं । (व) लावण्यम्-लायण्णं विबुधः- विउहो, वडवानलः-वलयाणलो ।
८. पद के मध्यस्थित अथवा अनादि और असंयुक्त ख-घ-थ-ध-भ प्राकृत में ह होता है । यथा - (ख) शाखा- साहा, मुखम् - मुहं, मेखला - मेहला, लिखतिलिहइ (ध) मेघ:- मेहो, जघनम् - जहणं, माघ : - माहो, (थ) नाथ:-नाहो, मिथुनम् - मिहुणं, कथयति - कहेइ । (ध) साधु :- साहू, बाधः-वाहो, बधिरःबहिरो (फ) मुक्ताफलम्-मुक्ताहलं । (भ) नभ: - नहं, स्वभावः-सहावो, शोभतेसोहइ |
For Private and Personal Use Only
९. पद के मध्यस्थित अथवा अनादि और असंयुक्त 'ट' को 'ड' हो जाता है । यथा - नटः-नडो, भटः-भडो, घट:- घडो, घटते- घडइ ।
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१४
www.kobatirth.org
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०. पद के मध्यस्थित अथवा अनादि और असंयुक्त "ठ" को "ढ” हो जाता है । यथा - मठ:- मढो, शठः- सढो, कमठ: - कमढो, कुठारः- कुढारो, पठति पढइ ।
११. प्राकृत में पद के मध्यस्थित अथवा आदि असंयुक्त दन्त्य “न” मूर्धन्य "ण" हो जाता है । यथा - नरः - णरो, नदी - णई, नयति- इ, कनकम्कणयं ।
क) यदि आदि में दन्त्य "न" हो तो वही दन्त्य "न" वैसे ही रह सकता है अर्थात् आदि में दन्त्य "न" हो सकता है । इसलिए नदी-नई, 1 ई, भी हो सकता है ।
मन्तव्य :
वस्तुतः प्राकृत में आदि और अनादि, संयुक्त जैसे स्थलों पर मूर्धन्य “ण” होता है । अतएव प्राकृत में सभी स्थानों पर मूर्धन्य का ही प्रयोग करना चाहिए । किन्तु हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में लिखा है कि आदि दन्त्य "न" प्राकृत में हो सकता है । किन्तु अन्यान्य व्याकरण में लिखा है कि आदि और अनादि, संयुक्त और असंयुक्त सभी स्थलों पर मूर्धन्य “ण” होना चाहिए | हेमचन्द्राचार्य द्वारा जो कहा गया, उसके पीछे ऐतिहासिक विशेषता है । वस्तुतः अर्ध-मागधी भाषा में आदि स्थित दन्त्य "न" हो सकता है । इसी के साहित्य का प्रभाव प्राकृत भाषा पर भी आ गया । इसलिए सम्भवतः हेमचन्द्राचार्य ने ऐसा नियम बनाया है ।
१२. प्राकृत में आदि य को ज होता है । यथा - यश:- जसो, यम:जमो, याति - जाइ ।
१३. प्राकृत में तालव्य "श" मूर्धन्य " ष" के स्थान पर दन्त्य "स” होता है । यथा-शब्दः- सद्दो, दश-दंस, शोभते सोहइ, कषायः-कसाओ, किन्तु मागधी प्राकृत में दन्त्य "स" के स्थान पर तालव्य "श" होता है । यथा मनुष्यः- मणुश्शो, पुरुषः - पुलिशो |
४. य-श्रुति
प्राकृत में य-श्रुति होती है । य-श्रुति की उत्पति किसी व्यंजन वर्ण के लोप के कारण से होती है । संस्कृत के आधार पर हम लोग जब विचार करते हैं तब देखते हैं कि कोई व्यंजन वर्ण जब अनादि अवस्था में होता है तब उसका कभी लोप होता है कभी नहीं भी होता है । जब लोप
For Private and Personal Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
य-श्रुति
१५
होता है तब लोप के स्थान पर जो स्वर है उस स्वर का अवस्थान होता हैं । अर्थात् रह जाता है । जैसे काक अर्थात् क् + आ + क् + अ इस शब्द में जो द्वितीय क् है वह अनादि क् है । इसलिए वह अनादि क् प्राकृत में लोप हो जाएगा । लोप होने के बाद जो स्वर है अर्थात् यहां अ है वह रह जाएगा। यही नियम साधारणतया सभी जगह प्राकृत में है।
कौन से अनादि वर्ण का लोप होता है प्राकृत में इसके बारे में हेमचन्द्र के व्याकरण के अनुसार सब अनादि क, ग, च, ज, त, द, प, य, व, (कग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लक् १.१७७) अर्थात् इस वर्ण का लोप होता है । यथा- काक-काअ, तीर्थकर-तीत्थअर, लोक-लोअ, नग-णअ, नगर-णअर, काचगृह-काअग्गह, गज-गय, वितान-विआण, यदि-जइ, मदन-मअण, रिपरिउ, दयालु-दआलु, विबुध-विउह इत्यादि ।
जब अनादि क, ग, च, ज इत्यादि लोप होते हैं तब जिस स्वर का अवस्थान होता है वही स्वर रह जायेगा । किन्त हेमचन्द्र ने बताया कि जब अ और आ के बाद जब अ रहेगा तब अ का उच्चारण य के जैसा होगा । अर्थात् उपर्यक्त उदाहरण ऐसा भी हो सकता है । यथा- काय, तित्थयर, लोय, णय, णयर, कायग्गह, गय, वियाण, मयण इत्यादि । ___इकारान्त और उकारान्त शब्द के स्थान पर अ है तो वही अ य नहीं लिखा जाता है । यद्यपि कभी-कभी इकारान्त और उकारान्त शब्द के स्थान पर भी य आता है, वह य विकल्प रूप से कोई-कोई पण्डित लोग मान लेते हैं । वस्ततः इकारान्त और उकारान्त शब्द के साथ य होना नहीं चाहिए। अगर होता है तो विशेष विधि से मान लेते हैं । सब ही प्राकृत व्याकरण के स्थान पर य-श्रुति मानी नहीं जाती है ।
अतः य-श्रति हम लोग जो देखते हैं वह मख्यतः अर्धमागधी भाषा में होती है । अर्थात् वही भाषा में नअर जब लिखते हैं वही नअर अर्धमागधी में नयर रूप से होता है । इसका तात्पर्य यही है य लिखना श्रति का कारण है अर्थात् अ और आ के बाद हम लोग जब पढ़ते हैं और बोलते हैं तब य की भाँति एक ध्वनि आ जाती है । उसी को ही हम लोग य-श्रुति कहते हैं । मुख्यतः य-श्रुति लिखने की नहीं है सुनने की है । हम यही तो सुनते है । वही जब लिखते हैं तब य देकर के लिखते हैं । अर्धमागधी में इसलिए इस श्रति का प्रभाव ज्यादा से ज्यादा होता है।
For Private and Personal Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१६
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
य-श्रुति के विषय में केवल यही कहना है कि उपर्युक्त जो वर्ण है उसका लोप होने की बाद जो स्वर ध्वनि रह जाती है वहीं स्वर ध्वनि रहन चाहिए । यो यह ध्वनि लगाना सुनने के कारण से होती है । शायद अर्धमागधी महावीर के समय में कथ्य भाषा के रूप में थी, इसलिए अर्धमागधी में सबसे ज्यादा इस श्रुति का प्रयोग होता है । य-श्रुति का यही निष्कर्ष है । ५. संधि
संधि प्राकृत में बहुत सरल है । संस्कृत की तरह ऐसी जटिल नहीं है । संस्कृत संधि के बहुत नियम प्राकृत में नहीं चलते हैं । प्राकृत में संधि के नियम निम्नलिखित प्रकार से हैं ।
१. ह्रस्व और दीर्घ स्वर तथा दीर्घ और ह्रस्व स्वर मिलकर एक गोष्ठीय दीर्घ स्वर होते हैं । अर्थात् अ + अ / अ + आ अथवा आ + आ / आ + अ-आ होता है । इ + इ / इ + ई अथवा ई + इ / ई + ई = ई होती है । उ + उ / उ + ऊ अथवा ऊ + उ / ऊ + ऊ ऊ होता है । उदाहरण के तौर पर - देव + आलय = देवालय । चक्क + आअ = चक्काअ । इसि + इसि इसीसि | सु + उरिस = सूरिस |
२. प्राकृत में अ / आ + इ / ई और अ / आ + उ / ऊ दोनों मिलकर क्रमशः ए और ओ होते हैं । जैसे- दिन + ईस = दिनेस, पुहवी + ईस पुहवीस, अन्त + उवरि अन्तोवरि ।
=
For Private and Personal Use Only
=
२. क ) किन्तु जब एकार और ओकार के बाद संयुक्त वर्ण रहता है, तब एकार के स्थान पर "इ" और ओकार के स्थान पर "उ" होता है । यथा- दणुअ + इंद= दणुएंद, दणु-इंद | गह + उल्लिहण = णहोल्लिहण, हुलिहण |
मन्तव्य : एकार और ओकार का ह्रस्व रूप इकार और उकार होता है। इसलिए संयुक्त वर्ण के पहिले एकार और ओकार क्रमशः इकार और उकार हो गया । अगर संयुक्त वर्ण के पहिले एकार और ओकार रहेंगे तब वही एकार और ओकार के ह्रस्व माने जाते हैं अर्थात् वही ए व ओ का हम लोग प्राकृत में ह्रस्व मानते हैं । यथा- पिंड पेंड, तुंड-तोंड़ । ये ए और ओ प्राकृत में ह्रस्व हैं । यद्यपि ए और ओ का वास्तविक रूप दीर्घ ही है ।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संयुक्त वर्ण के नियम
१७
३. प्राकृत में संधि का निषेध
दो भिन्न स्वरों की संधि प्राकृत में नहीं होती है । अर्थात् ई + अ / आ, इ / ई + उ / ऊ और उ / ऊ + इ / ई, उ / ऊ + ए / ओ इस तरह की संधि प्राकृत में नहीं होती है । यथा- दणुइंद, वहआइ, अहो अच्छरिअ, सञ्झावहु-अवऊदा इत्यादि ।
४. विकल्प से संधि
एक पद के अन्त और दूसरा पद के प्रारम्भ में जो स्वर वर्ण हैं वे स्वर वर्ण एक नम्बर नियम के अनसार हों तब विकल्प से संधि हो सकती है । यथा- वास + इसि = वासेसि, अथवा वासइसि । विसम + आयवो = विसमायवो अथवा विसमआयवो । दहि + ईसरो= दहीसरो अथवा दहिईसरो, साउ + उअयं = साऊअयं अथवा साउउअयां ।
५. शब्द के बीच में यदि कोई व्यंजन वर्ण का लोप हो तो उसके बाद जो स्वर रह जाता है उस स्वर के साथ उसी पद में जो दूसरा स्वरवर्ण है उसकी संधि विकल्प से कदाचित् देखी जाती है । यथा- स + उरिसो = सूरिसो । इस तरह संधि प्राकृत में उचित नहीं है । लेकिन कभी-कभी होती है।
६. क्रिया में व्यंजन के लोप के कारण से जो स्वर रह जाता है उसके साथ परवर्ती स्वर की संधि नहीं होती है।
वस्तुतः प्राकृत में दो स्वर वर्ण का अवस्थान पास-पास हो तो तब भी उसको संधि की आवश्यकता नहीं होती है । इसलिए प्राकृत में संधि के सभी नियम वस्तुतः विकल्प से हैं ।
६. संयक्त वर्ण के नियम
प्राकृत में दो विसदृश व्यंजन वर्ण कभी संयुक्त नहीं होते हैं । केवल अपने-अपने वर्गों के साथ सन्धि हो सकती है अर्थात एक ही वर्ग के साथ एक ही वर्ग की सन्धि और स स, ल ल, य य के साथ भी संधि हो सकती है।
संस्कृत में भिन्न वर्ग की संधि हो सकती है पर इस प्रकार से प्राकृत में संधि नहीं होती है । इस विषय में कछ नियम इस प्रकार है
For Private and Personal Use Only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
F
0
क) संयक्त वर्ण का पहला वर्ण जब क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स होता है तो उनका लोप होता है । यथा
क- भूक्तम-भूत्तं, सिक्तम्-सित्थं ग- दुग्धम्-दुद्धं, मुग्धम्-मुद्धं ट- षट्पदः-छप्पओ, कट्फलम्-कप्फलं ड- खगः- खग्गो, षड्जः- सजो । त- उत्पलम्-उप्पलं, उत्पादः- उप्पाओ द- मद्गुः - मग्गू, मुद्गरः - मोग्गरो प- सुप्तः - सुत्तो, गुप्तः - गुत्तो श- श्लक्ष्णम्-लण्हं, निश्चल:- णिच्चलो ष- गोष्ठी-गोट्ठी, षष्ठः-छठ्ठो, निष्ठुरः-निठुरो स- स्खलितः - खलिओ, स्नेहः - नेहो :- दुःखम् -दुक्खं, अंतःपातः- अंतप्पाओ
ख) प्राकृत में संयुक्त वर्ण जब, ब, ल, व, र होता है तब उसका लोप हो जाता है । यथा
ब- शब्दः- सद्दो, अब्दः - अद्दो, लब्धकः - लोद्धओ।। ल- उल्का-उक्का, वल्कलम्-वक्कलं, विक्लवः - विक्कओ । व- पक्वम्-पिक्कं, ध्वस्तः - धत्थो । र- अर्कः - अक्को, वर्ग:- वग्गो, रात्रिः - रत्ती ।
ग) प्राकृत में संयुक्त वर्ण का द्वितीय वर्ण जब, म, न, य होता है तब म, न, य का लोप हो जाता है । यथा
म-युग्मम्-जुग्गं, रश्मिः - रस्सी, स्मरः - सरो । न- नग्नः - नग्गो, लग्नः- लग्गो । य- श्यामः - सामा, कड्यम्-कहुं ।
घ) प्राकृत में संयुक्त वर्ण का एक वर्ण लोप होने पर जो शेष है उसका द्वित्व होता है । परन्त आदि में जब कोई लोप होगा तब उसका द्वित्व नहीं होता है । यथा- क्षमा-खमा, स्कन्धः - खन्धो ।
ङ) प्राकृत में दो महाप्राण वर्ण ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ का संयक्त वर्ण नहीं होता है । उसमें प्रथम महाप्राण वर्ण अल्पप्राण होता है ।
For Private and Personal Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रूप-तत्त्व
१९
यथा- अक्षम:-अख्खमो-अक्खमो, ऐसा सर्वत्र होता है ।
च) प्राकृत में क्ष्म, श्म, ष्म, स्म, ह्म को म्ह होता है । यथाक्ष्म- पक्ष्मन् - पम्हाई श्म- कुश्मानः-कुम्हाणो, कश्मीराः-कम्हारा । ष्म- ग्रीष्मः-गिम्हो, ऊष्मा-उम्हा । स्म- अस्मादृशः अम्हारिसो, विस्मयः-विम्हओ । ह्म- ब्रह्मा-बम्हा, सह्मा-सम्हा, ब्राह्मणः - बम्हणो । छ) प्राकृत में श्न, ष्ण, स्न, ह्र, ल, क्ष्ण को ण्ह होता है । यथाश्न- प्रश्नः- पण्हो ष्ण- विष्णुः- विण्हू स्न- ज्योत्स्ना-जोण्हा ह्न- वह्निः-वण्ही ल- पूर्वाह्नः-पवण्हो क्ष्ण- तीक्ष्णं-तिण्हं ।
रूप-तत्त्व (Morphology)
७. विशेष्य : विशेष्य का प्राकृत में सविभक्ति रूप होता है । जिसको हम शब्दरूप कहते हैं । विशेष्य का वचन, लिंग, कारक, विभक्ति और शब्दरूप होता है।
वचन
प्राकृत में केवल दो वचन है- एकवचन और बहुवचन । संस्कृत का द्विवचन प्राकृत में नहीं होता है । उसकी जगह पर बहवचन होता है ।
(द्विवचनस्य बहुवचनम् (हे. ३.१३०)। लिंग
साधारणतया संस्कृत के अनुसार प्राकृत में भी तीन लिंग होते हैं । यथा- पलिंग, स्त्रीलिंग, नपंसकलिंग । किन्त कुछ-कुछ ऐसे शब्द हैं जिसमें संस्कृत लिंग का अनुसरण प्राकृत में नहीं होता है । जैसे संस्कृत में तरणि शब्द स्त्रीलिंग होता है किन्तु प्राकृत में पलिंग होता है (यथा, एस तरणी)। इस तरह प्रावृट् शब्द संस्कृत में स्त्रीलिंग है प्राकृत में पुलिंग है (यथा, पाउसो)। इसका मार्गदर्शन तत्तत् स्थल पर दिखायेंगे ।
For Private and Personal Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२०
प्रथमा सु
द्वितीया अम्
तृतीया टा
चतुर्थी डे
पंचमी
कारक
संस्कृत के अनुसार प्राकृत में भी छ कारक है । विशेषता यही है कि सम्प्रदान के लिए केवल षष्ठी विभक्ति होती है । जिस कारण से संस्कृत में जो-जो कारक होता है उसी ढंग से प्राकृत में भी होता है । यद्यपि संस्कृत की नियमावली सर्वत्र नहीं चलती है तब भी हम तो उसे संस्कृत नियमावली ( आप यदि जानेंगे तो उसी ) से काम चला सकते हैं ।
ङसि
www.kobatirth.org
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
कारक विभक्ति
प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति नहीं होती हैं । इसलिए प्राकृत में सात विभक्तियाँ हैं । चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति होगी । संस्कृत के अनुसार प्राकृत में विभक्ति नहीं हैं । प्राकृत में विभक्ति की उत्पत्ति संस्कृत से अलग होती है । प्राकृत में विभक्ति का स्वरूप निम्नलिखित हैं
विभक्ति
एकवचन
षष्ठी
ङस्
सप्तमी ङि
सम्बोधन सु
ओ
अनुस्वार (.)
ण णं (णा)
म्मि
-
तो, ओ, उ,
हि, हिंतो
स्स
ए,
लोप, या प्रथमा
की तरह
जस्
शस्
भिस्
भ्यस्
11
सुप्
जस्
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बहुवचन
विभक्ति का लोप, आ
ए
31
For Private and Personal Use Only
-
हि, हिं, हिं
आम् | ण,
"
तो, ओ, उ, हि, हिंतो, सुंतो
णं
सु, सुं
प्रथमा की तरह
शब्द रूप
प्राकृत में दो तरह के शब्द होते है :- एक है स्वरान्त और दूसरा है व्यन्जनान्त ।
स्वरान्त शब्द केवल अ, आ, इ, ई, उ, ऊ हो सकता है क्योंकि एकारान्त तथा ओकारान्त शब्द प्राकृत में नहीं आते हैं । इसलिए केवल अकारान्त,
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शब्द रूप
आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त तथा ऊकारान्त शब्द ही प्राकृत में मिलते हैं।
प्राकृत में ऋ, ऋ और ल नहीं हैं इसलिए ऋकारान्त शब्द प्राकृत में अर, आर और कभी-कभी उकार भी होते हैं ।
प्राकृत में व्यंजनान्त शब्द नहीं होता है । इसलिए व्यंजनान्त शब्द भी स्वरान्त हो जाते हैं। __ शब्द पलिंग, स्त्रीलिंग एवं नपंसकलिंग होता है। लेकिन विभक्ति प्रयोग में उन लिंगों की भिन्नता नहीं पायी जाती है । केवल नपंसकलिंग की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति में अलग विभक्तियाँ लगती हैं। ऐसा स्त्रीलिंग शब्द में भी अलग विभक्तियाँ लगती हैं। नीचे शब्द के शब्दरूप दे रहा हूं।
अकारान्त पलिंग शब्द का रूप
वच्छ < वृक्ष, वत्स
एकवचन वच्छो
विभक्ति प्रथमा द्वितीया तृतीया
वच्छ
बहवचन वच्छा । वच्छे, वच्छा वच्छेहि, वच्छेहिं, वच्छेहिँ
वच्छेण-वच्छेणं
चतुर्थी
पंचमी
वच्छा, वच्छत्तो, वच्छाओ वच्छाउ, वच्छाहिं, वच्छाहिंतो
वच्छत्तो, वच्छाओ वच्छाउ, वच्छेहि, वच्छाहिंतो, वच्छेहितो वच्छासुंतो, वच्छेसुतो वच्छाण-णं वच्छेस, वच्छेसं
षष्ठी
सप्तमी सम्बोधन
वच्छस्स वच्छे, वच्छम्मि वच्छ, वच्छा, वच्छो
वच्छा
For Private and Personal Use Only
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
विभक्ति
प्रथमा
इकारान्त पुलिंग शब्द का रूप
गिरि एकवचन
बहुवचन गिरी
गिरी, गिरओ, गिरउ,
गिरिणो गिरि
गिरी, गिरिणो गिरिणा
गिरीहि-हिं-हिं
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी पंचमी
षष्ठी
गिरिणो, गिरित्तो, गिरीओ, गिरीउ, गिरीहिंतो गिरिणो, गिरिस्स गिरिम्मि गिरि, गिरी
गिरित्तो, गिरीओ, गिरीउ, गिरीहिंतो, गिरीसंतो गिरीण-णं गिरीस-सं गिरिणो, गिरओ, गिरउ, गिरी
सप्तमी
सम्बोधन
विभक्ति
प्रथमा
उकारान्त पुलिंग शब्द का रूप
तरु एकवचन
बहवचन तरू, तरवो, तरओ,
तरउ, तरूणो तलं
तरू, तरूणो तरुणा
तरूहि-हिं-हिँ
तरू
द्वितीया तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी सप्तमी सम्बोधन
तरुणो, तरुत्तो, तरूओ, तरूउ, तरूहिंतो तरुणो, तरुस्स तरुम्मि तरु, तरू
तरुत्तो, तरूओ, तरुउ तरूहिंतो, तरूसंतों तरूण, -णं तरूस-सं तरू, तरुणो, तरवो, तरउ, तरओ
For Private and Personal Use Only
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शब्द रूप
विभक्ति
प्रथमा
आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का रूप
माला एकवचन
बहवचन माला
माला, मालाओ,
मालाउ माल
माला, मालाओ,
मालाउ मालाअ, मालाइ, मालाए| मालाहि-हिं-हिं
द्वितीया
तृतीया चतर्थी पंचमी
पष्ठी सप्तमी
मालाअ, मालाइ, मालाए। मालत्ता, मालाओ, भालत्तो, मालाओ, मालाउ, मालाहिंतो, मालाउ, मालाहिंतो मालासंतो मालाअ, मालाइ, मालाए। मालाण-णं मालाअ, मालाइ, मालाए। मालास-सं माले, माला
माला, मालाओ, भालाउ
सम्बाधन
आकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का रूप
लता
विभक्ति
एकवचन
प्रथमा
लया
बहवचन लया, लयाओ, लयाउ लया, लयाओ, लयाउ लयाहि-हिं-हिँ
लयं
लयाअ, लयाइ, लयाए।
द्वितीया तृतीया चतर्थी पंचमी
पाठी
लयाअ, लयाई, लयाए लयत्तो, लयाओं, लयाउ, लयाहिंतो लयाअ, लयाइ, लयाए लयाअ, लयाइ, लयाए। लये, लया ।
लयत्तो, लयाओ, लयाउ, लयाहिंतो-लया तो लयाण-णं लयासु-सुं लया, लयाओ, लयाउ
सप्तमी
सम्बोधन
For Private and Personal Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२४
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतर्थी
6
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
www.kobatirth.org
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
इकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का रूप बद्धि
एकवचन
बुद्धी
बुद्धिं
बुद्धीअ, बुद्धी, बुद्धीइ
बद्धिए
बुद्धीअ, बुद्धी, बुद्धीइ, बुद्धीए, बुद्धीउ, बुद्धीओ,
बुद्धित्तो, बुद्धीहिंतो
एकवचन
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बुद्धीअ-आ-इ-ए
बुद्धीअ-आ-इ-ए
बुद्धि, बुद्धी
ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का रूप
नई, नई, नईओ, नइत्तो, नई, नईउ-हिंतों
नईअ, आ-इ-ए
नईअ, आ-इ-ए
नई, नई
बहुवचन
बुद्धी, बुद्धीओ, बुद्धीउ
बुद्धी, बुद्धीओ, बीउ बुद्धीहि-हिं-हिं
For Private and Personal Use Only
बुद्धित्तो, बुद्धीओ,
बुद्धीउ,
बुद्धिर्हितो तो
बुद्धीण
बुद्धीसु-सुं
बुद्धी, बुद्धिओ, बुद्धीउ
नई
नई
नई, नई, नईइ, नईए नईहि - हिं- हिं
बहुवचन
नई, नईओ, नईउ
नई, नईओ, नईउ
नइत्तो, नईओउ-हिंतो-संतो
नईणणं
नईस सं
नई, नईओ, नईउ
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतर्थी
७
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतर्थी
9
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
धेणू
धेणं
www.kobatirth.org
उकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का रूप
धे
शब्द रूप
एकवचन
धेणू, धेणुआ, धेणूइ,
धेणूए
धेण, धेणू
धेणूअ, धेणूआ, धेणूइ, धेणू, धेणूओ, धेणत्तो,
हितो
धेणूअ-आ-इ-ए
अ-आ-इ-ए
वहू
वहं
एकवचन
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का रूप
वहू
वहूअ, वहूआ, वहूइ,
बहुए, बहुओ, बहुत्तो,
वहूहिंतो वहूअ-आ-इ-ए
वहूअ-आ-इ-ए
वहु, वहू
बहुवचन
धेणू, धेणूओ, धेणूउ
धेणू, धेणूओ, धेणूउ हि- हिं-हिं
घेणत्तो, धेणूओ, धेणूउ
For Private and Personal Use Only
घेणूर्हितो, धेणूसंतो
धेणूण - णं
धेणूस-सं
धेणू, धेणूओ, धेणूउ
वहूअ, वहूआ, वहूइ, वहूए वहूहि - हिं- हिँ
बहुवचन
वहू, वहूओ, बहूउ
वहू, वहूओ, वहुउ
हू
बहुसु-सुं
वहू, बहूओ, वहूउ
२५
वहत्तो, बहूओ, बहूउ, बहूहिंतो बहूसंतो
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
विभक्ति
प्रथमा
कछ शब्द का विशेष रूप
पिउ, पिअर शब्द एकवचन
बहवचन पिआ, पिअरो
पिअरा, पिअवो, पिअओ, पिअउ,
पिउणो, पिऊ पिअरं
पिअरे, पिअरा,
पिउणो, पिऊ पिअरेण-णं, पिउणा पिअरेहि-हिं-हिँ,
पिऊहि-हिं-हिं
द्वितीया
तृतीया
चतर्थी पंचमी
पिअरत्तो, पिअराओ, पिअरत्तो, पिअराओ, पिअराउ, पिअराहि-हिंतो, पिअराउ, पिअराहि, पिअरा, पिउणो, पिउत्तो, | पिअरेहि, पिअराहिंतो पिऊओ, पिऊउ, पिअरेहिंतो, पिऊहिंतो, पिऊ पिअरासंतो, पिअरेसंतो पिअरस्स, पिउणो, पिउस्स पिअराण-णं, पिऊण-णं पिअरे, पिअरम्मि पियरेसु-सं, पिऊस-सुं पिअर, पिअरो, पिअरा, | पिअरा, पिउणो, पिऊ पिअरं, पिअ, पिउ, पिऊ
षष्ठी सप्तमी सम्बोधन
विभक्ति
भत्तार शब्द
एकवचन | भत्तारो
भत्तारं
प्रथमा
द्वितीया
बहुवचन भत्तारा, भत्तू, भत्तुणो भत्तारा, भत्तारे, भत्तू, भत्तणो भत्तारेहि-हिं-हिं, भत्तूहि-हिं-हिँ
तृतीया
भत्तारेण-णं, भत्तुणा
For Private and Personal Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शब्द रूप
२७
एकवचन
बहवचन
विभक्ति चतर्थी
पंचमी
भत्तारा, भत्तारत्तो, भत्तारत्तो, भत्तारओ, भत्तारओ, भत्तारउ, भत्तारउ, भत्ताराहि, भत्तारहितो, भत्ताराहि, भत्ताराहि, भत्तारहिंतो भत्तुणो, भत्तुत्तो, भत्तूओ, | भत्तारेहितो, भत्तारसुतो भत्तूउ, भत्तूहिंतो, भत्तू । भत्तारेसुंतो, भतुत्तो,
भत्तूओ, भत्तूउ,
भत्तूहिंतो, भत्तूसंतो भत्तारस्स, भत्तुणो, भत्तुस्स | भत्ताराण-णं, भत्तूण-णं भत्तारे, भत्तारम्मि, भत्तुम्मि भत्तारेसु-सुं, भत्तूसु-सुं भत्तार, भत्तारो, भत्तारा, | भत्तारा,भत्तू, भत्तुणों भत्तु, भत्तू
षष्ठी सप्तमी सम्बोधन
राजन्-राय
विभक्ति
एकवचन
प्रथमा
राया
द्वितीया
रायं, राइणं
बहुवचन राया, रायाणो, राइणो राये, राया, रायाणो, राइणो राएडि-हिं-हिँ, राईहि-हिं-हिँ
तृतीया
राइणा, रण्णा, राएण-णं
चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी
रण्णो, राइणो, रायत्तो । रण्णो, राइणो, रायस्स । राये, रायम्मि, राइम्मि राया, राय
रायत्तो, राइत्तो राईण-णं, रायाण-णं राईसु-सुं, राएसु-सु राया, रायाणो, राइणो
सम्बोधन
For Private and Personal Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२८
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
www.kobatirth.org
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
आत्मन् - अप्पा, अत्ता
एकवचन
अत्ता, अप्पा, अप्पाणो
अत्तं, अप्पं, अप्पाणं
अत्तणा, अप्पणा,
अत्तणेण, अप्पाणेण
अत्ता, अत्ताओ, अत्ताउ,
अप्पा, अप्पाणाहि,
अप्पाओ, अप्पाउ,
अप्पाहि अप्पाणा,
अप्पाणाओ, अप्पाणाउ
अत्तस्स, अत्तणो, अप्पस्स
अप्पणो
अत्ते, अत्तम्मि, अप्पे अप्पम्म, अप्पाणो
अप्पाणम्मि
अत्तं, अत्त, अप्पं, अप्प
अप्पाण
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
बहुवचन
अत्ता, अत्ताणो, अप्पा,
अप्पाणो
अप्पाणो, अप्पाणे,
अप्पाणा
अत्तेहि, अत्तेहिं,
अप्पेहि अप्पेहिं
अप्पाणेहि,
अप्पाणेहिं
अत्ताहिंतो, अत्तातो,
अत्ताहि, अप्पाहि अप्पाहिंतो, अप्पासंतो
अप्पाणा- अप्पाणो,
अप्पाउ, अप्पाणेहिंतो, अप्पाणेसुंतो
अत्ताण-णं,
अप्पाण-अप्पाणं,
अप्पाणाण- अप्पाणाणं
अत्तेसु-सुं, अप्पेसु-सुं अप्पाणेसु-सुं
अत्ता, अत्ताणो, अप्पा, अप्पाणो, अप्पाणा
८. विशेषण (Adjective)
I
प्राकृत में भी विशेषण विशेष्य का अनुसरण करते हैं । विशेष्य में जो लिंग, वचन, कारक और कारक-विभक्ति होती है विशेषण में भी वही होता
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संख्या वाचक शब्द
है । इसलिए विशेषण का रूप विशेष्य की तरह होता है ।
विशेषण साधारणतः उत्कर्ष और निकृष्ट वाचक और संख्यावाचक शब्द होता है । जब दो वस्तुओं में तुलना कर एक वस्तु को दूसरी से न्यून या अधिक बताना होता है तो उस विशेषण में तर या ईयस् प्रत्यय जोड़ा जाता है । एक से अधिक वस्तओं में से किसी एक को सबसे उत्कृष्ट या न्यून बतलाने के लिए विशेषण में तम अथवा इष्ठ प्रत्यय लगाया जाता है।
प्राकृत में संस्कृत की तरह तर, तम अथवा ईयस, इष्ठ प्रत्यय जोड़ा जाता है । लेकिन जोड़ने के बाद शब्द प्राकृत के नियम के अनसार परिवर्तित होते हैं । ये तुलनामूलक रूप निम्नलिखित प्रकार से होते हैं ।
दो के मध्य तुलना Comparative Degree
अणिट्टयर (१) तर > यर
कतयर
श्रेयस् > सेय (२) ईयस् कनीयस् > कणीयस
पापीयस् > पापीयस
दो से अधिक के मध्य तुलना Superlative Degree
अणिट्ठयम तम > यम
कतयम
श्रेष्ट > सेट्ट इष्ठ कनिष्ठ > कणिट्ठ
ज्येष्ठ > जेट्ठ पापिष्ठ > पाविट्ठ
संख्या वाचक शब्द
८.
अट्ठ
१. एअ / एग
एआ
एअं २. दो / दवे / दोण्णि ३. तओ / तिण्णि ४. चत्तारो / चउरो / चत्तारि ५. पंच
नव
दस / दह ११. एक्कारस / एआरह १२. दवालस / बारस १३. तेरह १४. चउद्दह
७. सत्त
For Private and Personal Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
३०
२२. बावीस
२३. तेवीस
२४. चउवीस
२५. पणवीस
२६. छब्बीस
२७. सतावीस
२८. अट्ठावीस
२९. अउणतीस
३०. तीस
३१. एगतीस
३२. बत्तीस
१५. पंचरह / पण्णरस १६. सोलस
१७. सत्तरस
१८. अट्ठारस
१९. एगूणवीस / अउणवीसइ/अउणवीस
२०. वीस / वीसइ
२१. एक्कवीस
३३. तेत्तीस ३४. चउत्तीस
३५. पणतीस
३६. छत्तीस
३७. सत्ततीस
३८. अट्ठतीस
३९. एगूणचत्तालीस चत्तालीस ४१. एगचत्तालीस
४०.
४२. बायालीस
४३. तेयालीस
४४. चउयालीस
४५. पणयालीस
४६. छायालीस
www.kobatirth.org
४७. सीयालीस
४८. अट्ठयालीस
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
For Private and Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४९.
५०.
५१. एगावन्न
५२. बावन्न
५३. तेवन्न ५४. चउवन्न ५५.
पणवन्न
५६. छव्वन्न
५७. सत्तावन्न
५८. अट्ठावन्न
५९. एगूणसट्ठि
६०. सट्ठि
६१. एगट्ठि
६२. वासट्टि
६३. तेसट्ठि
६४.
एगूणपन्न
पन्नास
चउसट्ठि
पण
६५. ६६. छासट्ठि
६७. सत्तसट्ठि
६८. अट्ठसट्ठि ६९. एगूणसत्तरि ७०. सत्तरि
७१. एक्कसत्तरि
७२. बावत्तरि
७३. तेवत्तरि
७४. चोत्तर
७५.
पंचहत्तर
७६. छावत्तरि ७७. सत्तहत्तर
७८.
अट्ठहत्तर
७९. एगूणासीइ ८०. असीइ
८१. एक्कासीइ
८२.
बाईसि
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
८३. तेसीड
८४. चउरासीइ ८५. पंचासीइ ८६. छलसीइ ८७. सत्तासीइ
८८. अट्ठासी
८९. एगूणनउइ
९०. नउइ
९१. एक्काणउइ
प्रथमा
द्वितीया
एक एकवचन
एओ एअं,
एआ
संबोधन
ए एअं
एअं
X
संख्यावाची शब्द के रूप
सप्तमी एअम्मि,
एआए,
अिं
X
www.kobatirth.org
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी आओ दोहिओ
षष्ठी
दोहि,
एएण
एआए दोहिं
दो, दुवे, दोणि
दो, दवे,
संख्यावाची शब्द के रूप
दो
तीन
बहुवचन
बहुवचन
X
एअस्स दोण्हं
एआ
दो
X
तओ,
तिण्णि
तओ,
तिण्णि
९४. चरणउइ
९५. पंचाणउइ
९६. छन्नउइ
९७.
९८.
९९.
१००.
सय
१०००. सहस्स
तीहि,
तीहिं
X
तीहिंतो
तिन्हं
तीसु
X
बेणउड
९२. ९३. तेणउइ
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
सत्ताणउइ
अट्ठाणउइ
नउणउइ
चार
बहुवचन
चत्तारो,
चउरो,
चत्तारि
चत्तारो,
चउरो,
चत्तारि
चउहि,
चउहिं
उ
X
पांच
बहुवचन
पंच
पंच
X
X
चउहिंतो पंचहिंतो
चउन्हं
पंचहं
पंचहि,
पंचहिं
३१
पंचसु
X
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
पूरक संख्या वाची शब्द First- प्रढम, Second- बीय, बिइय, दोच्च, Third- तइय, तच्च, Fourthचउत्थ, Fifth- पंचम, Sixth- छठ्ठ, Seventh- सत्तम, Eighth- अठुम, Nineth- नवम, Tenth- दसम, Twentieth- वीसइम ।
९. सर्वनाम शब्दरूप
अस्मद्-अम्ह विभक्ति | एकवचन
बहुवचन प्रथमा अहं, अहयं, हं,
वयं, मो, अम्ह, अम्हे, अम्मि, अम्हि, म्मि
अम्हो . भे द्वितीया मं, ममं, मिमं, मि, णे, णं, अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे
अम्मि, अम्ह, मम्ह, अहं तृतीया
मइ, मए, मयाइ, ममं अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह,
ममए, ममाइ, मि, मे, णे | अम्हे, णे चतुर्थी पंचमी मइत्तो, ममत्तो, महत्तो ममत्तो, अम्हत्तो, ममाहिन्तो मज्झत्तो, मत्तो
अम्हाहिन्तो, ममासंतो ममेराँतो, अम्हासुतो,
अम्हेसुतो षष्ठी | मम, मे, मइ, मह, महं णे, णो, मज्झ, अम्ह, मज्झ, मज्झं, अम्ह, अम्हं अहं, अम्हे, अम्हो, अम्हाण,
ममाण, महाण, मज्झाण
सप्तमी
मि, मे, मइ, मए, ममाइ अम्हम्मि, ममम्मि, महम्मि, मज्झम्मि
अम्हेसु, ममेसु, महेसु, मज्झेसु अम्हसु, ममसु, महसु, मज्झसु अम्हास
For Private and Personal Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
9
षष्ठी
एकवचन
सप्तमी
तं, तुं, तुमं,
तवं तह
,
www.kobatirth.org
सर्वनाम शब्द रूप
युष्मद्
तं, तुं, तुमं, तुवं, तह
तुमे, तए
पंचमी तइत्तो, तवत्तो, तुमत्तो,
1
तहत्तो, तम्मा तमत्तो, तुम्हत्तो, उहत्तो, उम्हत्तो, तुज्झत्तो, तुम्हत्तो, तुहत्तो तइ, तु, ते, तुम्हें, तुह, तुहं तव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए,
भे, दि, दें, ते, तइ, तए, तुए, तुमं, तुमइ, तुमए, तुम, तुमाइ
तुम्भ, उभ, उयूह, तुम्ह, तुज्झ, उम्ह, उज्झ
तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तए, तु, तु, तुम, तुह, तुभा, तुम्मि, तुवम्मि, तमम्मि, तहम्मि
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बहुवचन
भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तरहे, उन्हे
वो, तुब्भे, तुज्झ, तुम्हे, उन्हे भे
1
भे, तुम्भेहिं, तुम्हेहिं तुज्झेहिं उम्हहेहिं, तुम्हहिं, उज्झेहिं
तुब्भत्तो, उय्हत्तो, उम्हत्तो, तुम्हत्तो, तुम्हत्तो, तुज्झत्तों
तु, वो, भे, तुम्भ, तुभं, तुम्भाण, तुवाण, तुमाण, तुहाण, उम्हाण, तुब्भाणं, तवाणं, तुमाणं, तुय्हाणं तुम्ह, तुज्झ, तुम्हाण-णं, तुज्झाण-णं
३३
For Private and Personal Use Only
तस तवेस, मेस, तुहेसु, तुम्भे, तुम्हे तुज्झेस, तुवसु, तुमसु, तुहसु, तुम्भसु, तुम्हसु, तुज्झसु, तुब्भासु, तुम्हासु, तुज्झासु
,
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३४
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
विभक्ति
प्रथमा द्वितीया
तद्-स, त पुलिंग एकवचन स, सो तं, णं तेण, तिणा, णेण
बहुवचन ते, णे ते, ता, णे, णा तेहि, तेहिं, तेहिं
तृतीया
चतर्थी पंचमी
पली
तत्तो, तओ, तो, तम्हा ताहिंतो, तासंतो तस्स, तास, से
तेसिं, ताण-णं, सिं तस्सिं, तम्मि, तत्थ, तहिं । तेसु-, णेसु-सुं | ताहे, तइआ
सप्तमी
संबोधन
विभक्ति
प्रथमा
तद्-सा, ता स्त्रीलिंग एकवचन
बहुवचन सा
ताओ, ताउ, तीओ, तीउ
ताओ, ताउ, तीओ, तीउ ताइ, ताए, तीइ, तीए ताहि, ताहिं, तीहि, तीहिं तीअ, तीआ, तीणा
तं
द्वितीया तृतीया
चतुर्थी · पंचमी
षष्ठी
ताओ, ताउ, तीओ, तीउ | ताहिंतो, तासंतो,
तीसुतों, तहितो तस्सा, तिस्सा, तासे, तीसे | तासां, तेसिं, तासि, ताए, ताइ, तीए, तीइ तीसिं, ताण-णं, तीअ, तीआ, से तीण-णं, सि ताए, ताइ, तीए, तीइ, | तासु-सु, तीसु-सुं तीअ, तीआ, ताहे, तइआ
सप्तमी
संबोधन
For Private and Personal Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
www.kobatirth.org
सर्वनाम शब्द रूप
तद्-तं नपुंसकलिंग
एकवचन
X
तं
तं
तृतीया से सप्तमी तक शेष रूप पुलिंग के समान
इदम्-इम पुलिंग
एकवचन
इमो
इमं
इमेण, इमिणा
X
ओ, इमाउ,
इमस्स,
अस्स
इमस्सिं, इमम्मि, अस्सिं
इदम्-इमा स्त्रीलिंग
एकवचन
इमाहि
इमा
इमं
इमाइ, इमाए
X
इमाअ, इमाइ, इमाए, इमत्तो, इमाओ, इमाउ,
इमाहित
इमाअ, इमाइ, इमाए
इमाअ -इ-ए
X
बहुवचन
ताइ, ताई, ताणि
ताइ, ताई, ताणि
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
इमे
इमे
इमेहि-हिं-हिं
X
बहुवचन
इमाहिंतो, इमासंतो
इमाण-णं,
इमेसिं
इमेस सं
X
For Private and Personal Use Only
बहुवचन
इमा, इमाओ, इमाउ इमा, इमाओ, इमाउ
इमाहि-हिं
X.
इमत्तो, इमाओ, इल्माउ, इमाहिंतो-सुंतो
इमाण-णं
इमास-सं
X
३५
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
विभक्ति
एकवचन बहवचन
इदम्-इयं नपंसकलिंग
एकवचन | इअं, इणं, इणमो इअं, इणं, इणओ
एतद्-एअ पुलिंग
एकवचन एस, एसो
बहवचन इमाइ, इमाइं, इमाणि इमाइ-इं-णि
विभक्ति
प्रथमा
बहवचन एए एए एएहि, एएहिं, एएहिँ
एअं
एएण, एइणा
द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी
षष्ठी सप्तमी
एत्तो, एआओ, एआउ । एआहिंतो, एआसुतो एआहि एअस्स
एआण-णं, एएसिं | एअस्सिं,एअम्मि, एत्थ, इत्थ | एएस-स
संबोधन
एतद्-एआ स्त्रीलिंग
विभक्ति
एकवचन
एसा
प्रथमा द्वितीया तृतीया
बहुवचन एआओ, एआउ एआओ, एआउ एआहि-हिं-हिँ
एअं एआए
चतर्थी
पंचमी
एअत्तो, एआओ, एआउ एआहिंतो-संतो
एआअ, एआइ, एआए, एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहितो एआअ, एआइ, एआए एआअ, एआइ, एआए
षष्ठी
एआण-णं एआस-सं
सप्तमी
संबोधन
For Private and Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
संबोधन
विभक्ति
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
पठी
सप्तमी
संबोधन
एअं
www.kobatirth.org
सर्वनाम शब्द रूप
एतद् एवं नपुंसकलिंग
एकवचन
X
एअं
तृतीया से सप्तमी तक शेष रूप पुलिंगवत्
अदस्-अमु पुलिंग
एकवचन
अमू, अह
अमुं
अमणो
X
अमूओ, अमूउ, अमूहि
अमुणो, अमुस्स
अमुस्सिं, अमुम्मि,
अमुत्थ
अदस्-अम स्त्रीलिंग
एकवचन
अमू, अह
अमं
अमुए, अमूइ, अमू, अमूआ
X
अमूओ, अमूउ, अमूहि
अमूए, अमूइ, अमूअ, अमूआ अमूए, अमूइ, अमूअ, अमूआ
X
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
बहवचन
एआइ, एआई, एआणि
एआइ, एआई, एआणि
बहुवचन
अमूओ, अमुणो
अमू, अमणो
अमूहिं, अमूहिँ
X
अमर्हितो, असंतो
अमूण-णं
अमूसु-सुं
X
३७
बहुवचन
अमू, अमूओ, अमूउ अमू, अमूओ, अमूउ
अमूहि, अमूहिं
X
अमूहिंतो, असंतो
अमूण, अमूणं
अमूस, अमूसं
X
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३८
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
विभक्ति
प्रथमा द्वितीया
अम
अदस्-अमु नपुंसकलिंग एकवचन
बहुवचन | अमुं, अह
अमूइ, अमूई, अमूणि
अमूइ, अमूणि तृतीया से सप्तमी तक शेष रूप पलिंगवत्
यद्-ज पुलिंग एकवचन
बहवचन जो, जे
जे, जा जेण, जेणं
जेहि, जेहिं, जेहिँ
विभक्ति
प्रथमा द्वितीया
जं
तृतीया चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी सप्तमी
जम्हा, जाओ, जाउ जाओ, जाउ, जाहि, जेहि,
| जाहिम्तो, जासंतो, जेसंतो जस्स, जास
जेसिं, जाण, जाणं जंसि, जस्सिं, जहिं, जम्मि | जेस. जेसं. जाहे. जत्थ
जाला, जइआ
संबोधन
*
विभक्ति
प्रथमा द्वितीया
यद्-जा स्त्रीलिंग एकवचन
बहवचन जा
जा, जाओ, जाउ
जा, जाओ, जाउ जाअ, जाइ, जाए जाहि-हिं-हिँ
तृतीया
चतुर्थी
*
X
पंचमी
षष्ठी सप्तमी संबोधन
जाअ. जाइ. जाए, जत्तो, ! जत्तो, जाओ, जाउ, जाओ, जाउ, जाहिंतो । जाहिंतो-संतो जाअ, जाइ, जाए जाण-णं जाअ, जाइ, जाए
जासु-सं x
x
For Private and Personal Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सर्वनाम शब्द रूप
३९
यद्-ज नपंसकलिंग विभक्ति । एकवचन
बहुवचन प्रथमा जं
जाणि, जाई, जाइँ द्वितीया जं
जाणि, जाई, जाइ शेष सभी रूप पलिंग “ज'' के समान चलते हैं।
किम-क पलिंग विभक्ति
एकवचन प्रथमा द्वितीया केण, किणा
केहि, केहि
तृतीया चतर्थी
+
X
पंचमी कओ, कत्तो
काहिंतो, कासंतो षष्ठी कस्स, कास
काण, काणं, केसिं सप्तमी कस्सिं, कम्मि, कत्थ, केसु, केसिं
कहिं, कस्सि संबोधन x
किम्-का स्त्रीलिंग विभक्ति | एकवचन
बहवचन प्रथमा
| काओ, काउ, कीओ, कीउ द्वितीया । कं
काओ, काउ, कीओ, कीउ तृतीया काए, काइ, कीए, कीअ, क़ीआ काहि, कीहिं, कीहिं,कीहिं
का
चतुर्थी
पंचमी काओ, काउ, कीओ, | काहिंतो, कासंतो, कीहितो, कीउ, कीण
| कीसंतो पष्ठी कस्सा, किस्सा, कासे, कीसे, कासां, केसिं, कासिं, काणं
कीइ, कीअ, कीआ, काइ, काए काण, कीणे, कीण सप्तमी काए, काइ, कीए, कीइ | कासु-सुं, कीसु-सुं
कीआ, कीअ, काहे, कइआ संबोधन | x
|x
For Private and Personal Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
४०
विभक्ति
प्रथमा कं, किं
द्वितीया कं किं
1
विभक्ति
प्रथमा सव्वो द्वितीया सव्वं तृतीया सव्वेण णं
चतुर्थी
X
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
संबोधन X
पष्ठी सप्तमी
संबोधन
www.kobatirth.org
विभक्ति
प्रथमा सव्वा
द्वितीया सव्वं
तृतीया
चतर्थी
पंचमी
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
किम् किं नपुंसकलिंग
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ,
सव्वाहि, सव्वम्हा, सव्वाहिंतो, सव्वेहिंतो
एकवचन
सव्वस्स
सव्वस्सिं, सव्वम्मि,
सव्वहिं, सव्वत्थ
X
तृतीया से सप्तमी तक शेष रूप पुलिंगवत् । सर्व सव्व पलिंग
एकवचन
एकवचन
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
X
सर्व-सव्वा स्त्रीलिंग
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए, सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ सव्वाहिंतो
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए
X
बहुवचन
काइ, काई, काणि
काइ, काई, काणि
सव्वे
सव्वे, सव्वा सव्वेहि-हिं-हिं
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
X
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहि, सव्वेहि, सव्वाहिंतो, सव्वेहिंतो, सव्वासंतो, सव्वेसंतो
सव्वाण-णं, सव्वेसिं
सव्वेस- सं
बहुवचन
सव्वा, सव्वाओ, सव्वाउ सव्वा, सव्वाओ, सव्वाउ सव्वाहि-हिं-हिं
सव्वाण-णं
सव्वास-सं
X
बहवचन
X
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ सव्वाहिंतो-सुंतो
9
For Private and Personal Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
क्रिया
४१
विभक्ति
प्रथमा द्वितीया
सर्व-सव्व नपंसकलिंग एकवचन
वहवचन सव्वं
सव्वाणि, सव्वाइं, सव्वाइँ सव्वं
सव्वाणि, सव्वाइ, सव्वाइँ शेष रूप पलिंग "सव्व' शब्द की भांति ही चलते हैं ।
क्रिया प्राकृत में क्रिया के विषय में कछ विशेषताएँ हैं । जैसे १. धात २. पुरुष ३. वचन ४. वाच्य (परस्मैपद और आत्मनेपद) ५. क्रिया के भाव ६. काल (वर्तमान, अतीत और भविष्यत्) ७. अ-आगम ८. अभ्यास (द्वित्व) ९. विकरण १०. क्रिया की भूमि ११. क्रिया-विभक्ति (तिङ विभक्ति) १२. क्रिया का रूप ।
इनके अतिरिक्त भी १३. तमन् प्रत्यय है, १४. शतृ और शानच् प्रत्ययान्त शब्द और १५. असमापिका क्रिया भी है।
इसके अलावा क्रिया में और भी विषय है जिसको हम अलग ढंग से बनाते हैं । वह है १६. कर्मवाच्य, १७. णिजन्त क्रिया, १८. नाम-धात, १९. सन्नन्त धात और २०. यडन्त धात । कल मिलाकर के क्रिया में केवल इसी विषय में हमलोग ध्यान देते हैं।
किन्त उपर्यक्त जो विषय हमने वतलाए हैं वे सभी प्राकृत में नहीं होते हैं । प्राकृत मे उपर्यक्त विषय इतने सरल हो गए हैं कि एक विषय का भाव दूसरे विषय के द्वारा भी प्रकट हो सकता है । हम इन विषयों पर क्रमश: प्रकाश डालेंगे
१. धात-धात साधारणतया एक स्वर की होती है । जैसे कर, हस, मन् इत्यादि । किन्तु प्राकृत में अन्तिम हलन्त वर्ण नहीं होता है, इसलिए धात के साथ स्वर (अ) योग करना चाहिए । इसलिए कर धात को हमलोग कर रूप से पढ़ते हैं और इसी के साथ क्रिया विभक्ति का योग होता है । अर्थात् कर + इ = प्राकृत में करइ ।
प्राकृत में कोई धात द्वि-स्वर यक्त भी हो सकती है । जैसे पेक्ख इसका रूप पेक्खइ होता है । इस तरह देखइ, पासइ, हसइ इत्यादि ।
For Private and Personal Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४२
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
प्राकृत में ऐसा देखा जाता है कि उपसर्ग के साथ जब धात का योग होता है तब उपसर्ग सहित धातु बन जाती है । जैसे प-इक्ख इससे पेक्ख धातु होती है।
२. पुरूष- संस्कृत के अनुसार प्राकृत में भी तीन पुरूष हैं-उत्तम, मध्यम एवं प्रथम ।
३. वचन- प्राकृत में दो वचन है- १. एकवचन और २. बहुवचन । द्विवचन के भाव को व्यक्त करने के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है।
४. वाच्य (परस्मैपद एवं आत्मनेपद)-संस्कृत में जैसे वाच्य का परस्मैपद एवं आत्मनेपद होता है प्राकृत में ऐसा नहीं होता है । प्राकृत में केवल मख्यतः परस्मैपद होता है । इसलिए प्राकृत में वाच्य केवल परस्मैपद ही है। कर्म-वाच्य में भी परस्मैपदीय विभक्ति का योग होता है। किन्त कभी-कभी आत्मनेपदीय विभक्ति का योग होता है । इसलिए रमइ और रमए-इन दोनों का प्रयोग मिलता है । आत्मनेपद का प्रयोग अधिकांशतः अर्धमागधी में होता है । कभी-कभी माहाराष्ट्री प्राकृत काव्य में भी आत्मनेपद का प्रयोग देखा जाता है । वास्तव में उन स्थलों पर संस्कृत का प्रभाव देखा जाता है । कभी-कभी संस्कृत में अगर धातु आत्मनेपद है तो उसी के प्रभाव के अनुसार प्राकृत में भी आत्मनेपद का प्रयोग होता है । किन्तु प्राकृत भाषा के अनसार सभी स्थलों पर परस्मैपद विभक्ति होनी चाहिए । इसलिए जब कर्मवाच्य में क्रिया-विभक्ति की आवश्यकता होती है तब भी परस्मैपद विभक्ति होती है।
५. क्रिया के भाव- क्रिया के भाव का अर्थ है कि किस तरह से क्रिया निर्देशित होती है अर्थात् क्रिया प्रयोग से कैसे ज्ञात होता है कि क्रिया सामान्य रूप से किसी कार्य के अर्थ का प्रकाशन करती है, अथवा अपना आदेश एवं उपदेश देती है और उचित तथा अनचित इस भाव को प्रकट करती है वह क्रिया का भाव कहलाता है । इस तरह से क्रिया का भाव सात प्रकार का है- १. निर्देशक, २. इच्छार्थक ३. विध्यर्थक ४. अनज्ञा-ज्ञापक ५. क्रियातिपति ६. आशीपिक ७. अडागमनिषेधज्ञापक । ।
प्राकृत में इच्छार्थक, आशीर्जापक और अडागमनिषेधज्ञापक क्रिया के भाव नहीं होते हैं । इसलिए किसी प्राकृत में नहीं मिलता है।
For Private and Personal Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विकरण
४३
प्राकृत में केवल निर्देशक, विध्यर्थक, अनुज्ञाज्ञापक और क्रियातिपत्ति का प्रयोग होता है । इसलिए प्राकृत में केवल चार प्रकार धातु सा होता है।
६. काल-प्राकृत में तीन काल हैं :- भूत, वर्तमान और भविष्यत् । संस्कृत में जो लङ् लङ् और लिट् है उसका प्रयोग प्राकृत में नहीं होता है। प्राकृत में इन तीनों का प्रयोग केवल एक रूप से प्रकट होता है । इसलिए संस्कृत के ज्ञान से प्राकृत में क्रिया का रूप नहीं कर सकते हैं।
कभी-कभी अर्धमागधी में लङ् और लङ् का प्रयोग देखा जाता है । जैसे देविंदो इणं अब्बवी।
७. अ-आगम- संस्कृत में अ-आगम लङ, लङ और लुङ् में होता है। यह अ-कार अतीत-काल का ज्ञापक है । लङ् और लङ् प्राकृत में नहीं होता है इसलिए प्राकृत में अ-आगम भी नहीं होता है । क्रियातिपति अर्थात् लुङ प्राकृत में होता है । लेकिन इसका प्रयोग अ के योग में नहीं होता है । इसलिए प्राकृत में अ-आगम का प्रयोग नहीं होता है।
८. अभ्यास (द्वित्व) - प्राकृत में अभ्यास का प्रयोग नहीं होता है । इसलिए प्राकृत में अभ्यास नहीं होता है । संस्कृत में अभ्यास केवल जहोत्यादिगण में, लिट् के रूप में, सन्नन्त के रूप में और यडन्त के रूप में मिलता है । प्राकृत में ये सभी विषय दूसरे ढंग से घटित होते हैं । इसलिए प्राकृत में भी अभ्यास नहीं होता है।
__ अभ्यास का अर्थ धात को द्वित्व बनाना । जैसे गम् धात को लिटलकार के प्रयोग में धातु का अभ्यास होता है । अर्थात् गम् गम् होता है । इससे जगाम बनता है । यह जो गम् धातु का द्वित्व है वही अभ्यास कहलाता है । प्राकृत में इसका प्रयोग नहीं है । इसलिए प्राकृत में अभ्यास नहीं है ।
९. विकरण - प्राकृत में दो विकरण है-अ और ए [ए च] वर्तमानापञ्चमी शतृष वा (हे. ३.१५८) । सभी रूप अकारान्त और एकारान्त से ही होते हैं । जैसे करइ, करेइ, हसइ, हसेइ, गमइ, गमेइ इत्यादि ।
संस्कृत में जो १० गण है उन सभी का प्राकृत में दो गणों में विभाजन होता है। किन्त जब संस्कृत से हम लोग प्राकृत में सीधा रूपान्तरण करते हैं तब संस्कृत के गण का रूप प्राकृत में मिल सकता है । जैसे श्रृणोति प्राकृत में सुणोइ हो सकता है और सुणइ तो होगा हो । प्रायः इस तरह की धात के गण का रूप प्राकृत में मिलता है।
For Private and Personal Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
४४
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
१०. क्रिया की भूमि - प्राकृत में अन्तिम हलन्त व्यन्जन नहीं होता है । इसलिए प्राकृत में कोई हलन्त व्यन्जनान्त धात भी नहीं होता है । अर्थात् हस धातु अ विकरण से हस रूप बन जाता है । इसलिए हस प्राकृत में क्रिया की भूमि कहलाती है । इसी के साथ तिङ् विभक्ति का योग होता है । अर्थात् हस् अ-इ = हस इ = हसइ । क्रिया का रूप समझाने के लिए क्रिया की भूमि के ज्ञान की आवश्यकता है ।
निर्देशक
वर्तमान
११. क्रिया विभक्ति ( तिङ् विभक्ति) -- प्राकृत में क्रिया के काल और क्रिया के भाव प्रकट करने के लिए तिङ् विभक्ति होती है । वह विभक्ति संस्कृत से भिन्न है । उपर्युक्त क्रिया का काल एवं क्रिया का भाव संस्कृत से अलग है । नीचे विभक्ति का रूप देता हूँ ।
प्र. प
मध्य पः
बहु. व
इत्या, ह
अतीत
भविष्य
अनुज्ञा
१ व
इ, ए
- त -
हिंइ,
हिए
उ
विधिलिङ ज
क्रियातिपत्ति
1
बहु. व
न्ति,
इरे
-त
हिन्ति,
हिन्ते,
हिरे
61
तु
जा
www.kobatirth.org
न्ते
27
१ व
सि, से
-त
हिसि,
हिसे
सु
इजसु,
safe
ज
"1
- त
हित्या,
हिइ
ho
ह
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जा
For Private and Personal Use Only
१व
मि
-त
स्सं,
स्सामि,
हामि
हिमि
मु
ज
उ. प
11
बहु. व
मो, मु, म
- त -
सामो,
स्सामु,
स्साम,
हामो,
हामु,
हाम
मो
जा
17
१२. क्रिया का रूप - प्राकृत में उपर्युक्त क्रिया के तीन कालों एवं पांच लकारों का रूप मिलता है ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
For Private and Personal Use Only
हि
SLNDICATIY
1 नि
1 क
V
E
विध्यर्थक (Optative)
अनुज्ञाज्ञापक
(Imperative)
क्रियातिपत्ति
(Conditional)
तमर्थक
(Infinitive)
शतृशानच्
(Participle)
असमापिकाक्रिया (Gerund)
वर्तमान
भूत
६
भविष्यत्
३ एकवचन
अत्थि
आसि,
अहंसि
होहिइ
होजई, होइ होज, होजा
होउ
१ धातू / अस्
२ प्रथम परुप
होज, होना
होउं
हात
होऊण
बहुवचन
अत्थि
आसि,
अहसि
होहिन्ति
होत्र, होजा
हात
हाज, होजा
४ वाच्य
११ क्रिया विभक्ति
मध्यम परुष
एकवचन
अत्थि,
सि
आसि,
अहेसि
होहिमि
होजासि
हो, होहि
बहुवचन
अत्थि
आसि,
अहेसि
होहित्या
होजाह
होह
एकवचन
अत्थि,
म्हि
आसि,
अहंसि
होम्सामि, होहागि, होहिमि
होजामि
९ विकरण १२ क्रिया का रूप
उत्तम परुष
होमु
बहुवचन
अत्थि,
म्हां, म्ह
आसि,
अहेसि
होम्सामो, होहामो
हास्मामु, हाहाम् होस्साम, हाहाम हो, हो
होजाम
हामा
अस् धातु का रूप
४५
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
१ धातु कृ कर २ प्रथम पुरूप
वहुवचन
४ वाच्य ११ क्रिया विभक्ति
मध्यम पुरूप एकवचन
वहुवचन
९ विकरण १२ क्रिया का रूप उत्तम पुरूष
बहुवचन
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
३ एकवचन
एकवचन
| 17-ze-
वर्तमान
करंति, करेंति
करसि,करेसि
करह, करेह
करमि, करमि
करमो, करेमा
भूत
कासी, काही, (करित्था), काही करिस्सइ
कासी, काही, काही करिस्संति
कासी, काही, काही करिस्ससि
कासी, काही काही करिस्सह
कासी, काही, काही करिस्सामि
कासी, काही काही करिस्सामो -म,-म
भविष्यत्
For Private and Personal Use Only
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
www.kobatirth.org
करेजा, कज्जा
करेजा
करेजासि
करेखाह
करेजामि
करेग्जाम
करेउ.
करन्तु
करेसु, करेहि,
करह
करम
करमा
कर
करेजा, कुना
करेजा, कुज्जा
विध्यर्थक (Optative) अनुज्ञाज्ञापक (Imperative) क्रियातिपत्ति (Conditional) तुमर्थक (Infinitive) शतृशानच (Participle) असमापिकाकिया (Gerund)
करिउं, करितए करन्त, करमाण करित्ता करिऊण
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ धातु भू-हो
४ वाच्य ११ क्रिया विभक्ति
मध्यम पुरुष एकवचन
बहुवचन होसि
९ विकरण १२ क्रिया का रूप
उत्तम पुरुष एकवचन
बहुवचन होमि
होमो
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२ प्रथम पुरुष
वहुवचन होति
३ एकवचन
होइ
होह
3-z
वर्तमान
भूत
हुवी
हूय, हवी.
हवी
हुवी
हूय, हवी
हुवी
भविष्यत्
होहिद
होहिन्ति
होहिसि
होहित्था
होस्सामि, होहामि | होस्सामो, होहामा हाहिमि
होस्साम, होहामु होस्साम, होहाम होहिम, होहिम
For Private and Personal Use Only
भू धातु का रूप
www.kobatirth.org
होज,
होन्ज,
होज्जासि
होजाह
होजामि
होजाम
होजा होउ
होजा होत
विध्यर्थक (Optative) अनज्ञाज्ञापक (Imperative) क्रियातिपत्ति (Conditional)
होसु, होहि
होह
होम
होमा
होज,
होजा
होजा
तमर्थक
होत्रं
होत.
(Infinitive) शतृशानच (Participle) असमापिकाक्रिया (Gerund)
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
होऊण
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
For Private and Personal Use Only
नि
N
Dश
| क
C
A
T
V
E
विध्यर्थक
(Optative)
अनज्ञाज्ञापक
(Imperative)
क्रियातिपत्ति
(Conditional)
तमर्थक
(Infinitive)
शतृशानच्
(Participle)
असमापिकाक्रिया
(Gerund)
वर्तमान
६
भूत
भविष्यत्
३ एकवचन
भणइ,
भणेइ.
भणिअ
भणिस्सइ, भणेम्सइ
भणेत्रा
भणज
भणउ
भणज 'भणजा
भणिउं
भणन्त,
(भणमाण)
भणित्ता,
भणिऊण
१ धातु भण्-भण
२ प्रथम पुरुष
बहुवचन
भणंति,
भणेति
भणिअ
भणिस्संति,
भणेस्मंति
भणेजा
भणज
भणन्तु
४ वाच्य
११ क्रिया विभक्ति
मध्यम पुरुष
एकवचन
भणसि,
भणेसि
भणिअ
भणिsafe
भणस्ससि
भणेवासि
भणेस, भणेहि (भण)
बहुवचन
भणह,
भणेह
भणिअ
भणिस्सह
भणस्सह
भणेवाह
भणेह
एकवचन
भणामि,
मणेमि
९ विकरण १२ क्रिया का रूप
उत्तम पुरुष
भणिअ
भणिस्सामि
भणस्सामि
भणिहामि,
भणेहामि
भणिहिमि
भणेनामि
भणेमु
बहुवचन
भणमो
मणमा
- मु, म
भणिअ
भणिस्सामा,
भणस्सामा, मु. म भणिहाभो,
भणेहामो, मु, म भणेहाम, मु, म
भणेजाम
भणमा
४८
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
क्रिया विशेषण
४९
क्रिया विशेषण (Adverb)
(Adverbs of Place) त तद् | इदम् = अ । यद्
कि/ कु / क ततः-तओ, | इतः-इओ, एओ | यतः-जओ, | कतः-कओ, कओ [फिर] [यहां से ] अतः | जत्तो [कहां से ] कत्तो [इसलिए]
[क्योंकि] तत्र-तत्थ अत्र-इत्थ यत्र-जत्थ कुत्र-कत्थ कत्थइ
तहि [वहाँ] [यहां ] इह | [यहाँ ] जहि कुह-कहिं कहिंचि
क्व- कहिंपि तथा तह | इत्थं-इहं यथा-जह कथं-कहं [उस तरह] [इस प्रकार] | [जैसे] [कैसे] तदा-तया । | इदानीम्-दाणिं यदा-जया कदा-कया, सदा-सया [तब] | [इस समय] [सब] [कब] तर्हि-तहिं । एतंर्हि-एहिं यर्हि-जहिं कर्हि-कहिं [तब तो] ताह एगत्थ
जाह
एगत्थ-एक स्थान पर (in one place), अन्नत्थ-अन्यत्र (in another place) सव्वत्थ-सर्वत्र (everywhere), उड्ढे-ऊपर (above), हेट्ट-नीचे (below), बाहिं-बाहर (outside), अग्गओ-पहले (before); पच्छा-पीछे (behind), अन्तरा-बीच में (in the middle), दरओ- (from afar) ।
Adverbs of Time १. अज्ज-आज (today) २. एण्हिं, एत्थाहे, इयाणिं, संपय-अभी (now) ३. ता, तया, तओ, तो, तइया, ताहे-तब (then) ४. जया, जइया, जाहे-जव (when) ५. कया, कइया-कव (when) ६. जाव...ताव, जा...ता, जब...तक (while then) ७. कल्लं-कल (yesterday)
For Private and Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
८. सवे-दूसरे दिन (tomorrow) ९. पविं, पूरा-पहले (earlier) १०. निच्चं, सया, सइ सययं-सदा (always) ११. सहसा, झत्ति-अचानक (suddenly) १२. नवरं-अकेला (alone) १३. नवरि-उसके बाद (thereafter) १४. पणो-फिर से (again) १५. ताव य, एत्थन्तरे- इत्यवसरे (in the mean while)
Adverbs of Manner १. न, मा-नहीं (not) २. इव, विय, पिव, व्व, मिव, विव-तरह (like) ३. एवं, तहा-इसलिए ऐसा हो (so) ४. कहं पि-कैसे ही (somehow) ५. सम्म-ठीक प्रकार से (properly) ६. सम-साथ (together) ७. बाढ़, धणिय-बहुत (very) ८. ईसि, मणं-थोड़ा (little) ९. अवस्सं-अवश्य (necessarily) १०. लोहं, सिग्धं-शीघ्र (quickly) ११. सणियं-धीरे धीरे (slowly) १२. कमेण-क्रम से (in course) १३. सुट्ठ-अच्छा (well) १४. केवलं, नवरं-केवल (only) १५. सेयं-श्रेयस् (better)
उपसर्ग (Preposition) अइ (अति) अतिक्रमण करना अइक्कमइ (अतिक्रमण करना)
(beyond, over) अइगच्छइ (करते जाना) अणु (अनु) पश्चात्
अणुकरेइ (अनुकरण) (after.
अणुजाणइ (स्वीकृति) अव (अप) स्थान छोड़ना अवक्कमइ, अवरज्झइ, ओहरह
away, off,
For Private and Personal Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कारक नियन्त्रित उपसर्ग
५१
अभिगच्छइ, अभिवड्ढइ, अभिहवइ अवतरइ, अवमाणइ, ओगाहइ
आरुहइ, आगच्छइ
उग्गमेइ, उत्तरइ, उद्दिसइ उवागच्छइ, उवमेइ, उवधारेइ
अभि (अभि) ओर से अव (अव) कहीं से इटना
away..... आ (आ) किसी तरफ जाना
upto, on उद् (उद्) ऊपर (upon) उव (उप)
___ ओर से, समीप
(towards, near) दुस् (दुस्) बुरा कठिन
..... hard निस् (निस्) निकलता
(out, away) परि (परि) चारों ओर
(all round) पडि, (परि) ओर से (प्रति) (towards) वि (वि) पृथक् करना सं (सम्) साथ-साथ
(together) स (स) अच्छा (well) पाउ (प्रादुस्) उन्मुक्त (open)
दुच्चरेइ, दुक्करेइ निग्गमइ, निस्सरइ
परिगणेइ, परिवड्ढेइ
पडिवालेइ
विक्किणइ, विकब्बइ, विवरेइ संगमइ, संतोसेइ
सलद्धे, सकरेइ पाउकरेइ, पाउब्भवइ
कारक नियन्त्रित उपसर्ग (Prepositions governing cases) कर्म कारक अन्तरेण, जाव, पइ, मोत्तूण, आदाय, गहाय
(बिना) (जब तक) (के प्रति) (सिवाय) (साथ)
Without, until, towards, except, with करण कारक ___समं, सद्धि, सह, विणा
(साथ) (बिना)
with, without अपादान करक
आरभ (से) from
For Private and Personal Use Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
सम्बन्ध कारक परओ, उवरिं, समीवं, कए, हेट्ठा, बाहि, पञ्चक्खं
(पहले) (ऊपर) (समीप) (लिए) (नीचे) (बाहर) (प्रत्यक्ष) before, above, near, for, below, outside, in the presence of.
समुच्चयबोधक शब्द (Conjunction) संयोजक
अ, च, य, किंच (Copulative/connective) वियोजक (Disjunctive) वा, अहवा प्रतिपाक्षिक/प्रतिबेधक
अहवा, किन्तु (Adversative) अवस्थात्मक
जइ (Conditional) प्रत्यक्ष उक्ति (Direct speech) त्ति, ति, इ इइ व्यवस्थात्मक (Concessive) तदाहि
मनोभाव प्रकाशक शब्द (Interjection) मनोभाव प्रयक्त अर्थ सूत्र
उदाहरण प्रका. शब्द
giving, हं दान-पृच्छा- दाने-हूँ गेण्ह अप्पणो जीओ asking | निवारणो पृच्छायां-हूं साहू speaking (ii,१९७) सब्भावं । emphatically
निवारणे-हूँ हूंवसु
तण्हिक्को । विअ, वेअ | asseveration | णइ चेअ चिअच्च एवं विअ । चिअ, चेअ,
अवधारणे | एवं चेअ indication
ओ चिर असि remorse
(ii. २०३) indicision हर, फिर | doubtful | किरेर हिर पेक्ख हर तेण हदो।
'hop
For Private and Personal Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मनोभाव प्रकाशक शब्द
किल
हुँ (क)खु
सावर
णवरि
किणो
अव्वो
assertion
किलाथेअ अज किर तेण ववसिओ।
वा (ii. १८६) अअं किल सिविणओ। resolution,
| हं ख निश्चय- हुं रक्खसो। doubt,
वितर्क संभावन- | गरुओ क्ख भारो । reflection | (ii. १९८) only णवर केवलेणवरं अन्नं
(ii. १८७) immediate आनन्तर्ये णवरि |णवरि sequence, (ii. १८८) then asking a
किणो प्रश्ने किणो धुबसि । question | (ii. २१६) किणो हससि । distress अब्बो सूचना सूचनायां-अब्बो अवरं indication दःख
|पिअ । reflection संभाषणापराध- संभावने-अव्वो णमिव
विस्मयानन्दा- अत्तं । दरभय खेदविषाद पश्चात्तापे
(ii. २०४) opposition | अलाहि निवारणे अलाहि कलहवंधेण
(i. १८९) addressing a | बले निर्धारण- अइ मूलं पसूसइ.
निश्चययोः
(ii. १८५) person
अइ संभावने
(ii. २०५) in the णवि वैपरोत्ये णवि तर पहसइ बाला। same of | (ii. १३८) contrariety
अलाहि
बले
अइ
णवि
For Private and Personal Use Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका
थू
censure
थू कुत्सायाम् । (ii. २००)
थू सिविणो।
रे अरे, हरे, हिरे
addressing a | रे अरे संभाषण person, of रतिकलहे delight (ii. २०१) quarrelling हरे क्षेपे च
(ii. २००)
रे मा करेहि णाओ सि अरे । दिट्ठो सि हिरे।
मिव, पिव, like, simile
गअणं मिव । गअणं विअ कसणं
इव
मिव पिव विव । व व विउ इवार्थे वा । (ii. १८२) | अज्ज आमंत्रणे
अज्ज
addressing courteously
किं करेसि अज्ज महाणहाव
सूत्र है वररूचि का । बंधनी में हेमचन्द्र सूत्र के साथ तलनीय है ।
For Private and Personal Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan 142869 gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only