Book Title: Prakrit Vyakaran Praveshika
Author(s): Satyaranjan Banerjee
Publisher: Jain Bhavan

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Page 43
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ प्राकृत व्याकरण प्रवेशिका प्राकृत में ऐसा देखा जाता है कि उपसर्ग के साथ जब धात का योग होता है तब उपसर्ग सहित धातु बन जाती है । जैसे प-इक्ख इससे पेक्ख धातु होती है। २. पुरूष- संस्कृत के अनुसार प्राकृत में भी तीन पुरूष हैं-उत्तम, मध्यम एवं प्रथम । ३. वचन- प्राकृत में दो वचन है- १. एकवचन और २. बहुवचन । द्विवचन के भाव को व्यक्त करने के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है। ४. वाच्य (परस्मैपद एवं आत्मनेपद)-संस्कृत में जैसे वाच्य का परस्मैपद एवं आत्मनेपद होता है प्राकृत में ऐसा नहीं होता है । प्राकृत में केवल मख्यतः परस्मैपद होता है । इसलिए प्राकृत में वाच्य केवल परस्मैपद ही है। कर्म-वाच्य में भी परस्मैपदीय विभक्ति का योग होता है। किन्त कभी-कभी आत्मनेपदीय विभक्ति का योग होता है । इसलिए रमइ और रमए-इन दोनों का प्रयोग मिलता है । आत्मनेपद का प्रयोग अधिकांशतः अर्धमागधी में होता है । कभी-कभी माहाराष्ट्री प्राकृत काव्य में भी आत्मनेपद का प्रयोग देखा जाता है । वास्तव में उन स्थलों पर संस्कृत का प्रभाव देखा जाता है । कभी-कभी संस्कृत में अगर धातु आत्मनेपद है तो उसी के प्रभाव के अनुसार प्राकृत में भी आत्मनेपद का प्रयोग होता है । किन्तु प्राकृत भाषा के अनसार सभी स्थलों पर परस्मैपद विभक्ति होनी चाहिए । इसलिए जब कर्मवाच्य में क्रिया-विभक्ति की आवश्यकता होती है तब भी परस्मैपद विभक्ति होती है। ५. क्रिया के भाव- क्रिया के भाव का अर्थ है कि किस तरह से क्रिया निर्देशित होती है अर्थात् क्रिया प्रयोग से कैसे ज्ञात होता है कि क्रिया सामान्य रूप से किसी कार्य के अर्थ का प्रकाशन करती है, अथवा अपना आदेश एवं उपदेश देती है और उचित तथा अनचित इस भाव को प्रकट करती है वह क्रिया का भाव कहलाता है । इस तरह से क्रिया का भाव सात प्रकार का है- १. निर्देशक, २. इच्छार्थक ३. विध्यर्थक ४. अनज्ञा-ज्ञापक ५. क्रियातिपति ६. आशीपिक ७. अडागमनिषेधज्ञापक । । प्राकृत में इच्छार्थक, आशीर्जापक और अडागमनिषेधज्ञापक क्रिया के भाव नहीं होते हैं । इसलिए किसी प्राकृत में नहीं मिलता है। For Private and Personal Use Only

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