Book Title: Prakrit Vyakaran Praveshika
Author(s): Satyaranjan Banerjee
Publisher: Jain Bhavan

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यंजन का नियम ऋ > इ । कृपा-किवा, हृदयम्-हिययं, भृङ्गारः - भिंगारो, श्रृगालः- सिआलो इत्यादि । ऋ > उ । ऋतुः-उऊ, पृष्ठ: - पुट्ठो, पृथिवी - पुहई, वृतान्तः- वुत्तन्तो, वृन्दं दं इत्यादि । १३ ॠ > रि । ऋद्धिः - रिद्धि, ऋक्ष:- रिच्छो, ऋषिः - रिसी आदि । नियम । (ख) कभी - कभी ॠ के स्थान पर आ, ए, और ढि भी होता है । यह बहुत से शब्दों पर लागू नहीं है । लेकिन कुछ शब्दों पर इसका प्रभाव है । यथा- कृशा - कासा मृदुकं - माउक्कं, मृदुत्वं- माउक्कं गृहं गेहं आदृतआढिओ । , 1 ( ग ) संस्कृत का ऋकारान्त शब्द प्राकृत में तीन प्रकार का होता है । अर, आर और उ । संस्कृत पितृ शब्द प्राकृत में पिअर और पिउ होता है । ६. प्राकृत में ऐ और औ के स्थान पर ए व ओ होता है । यथा-शैल:सेलो, त्रैलोक्यं-तेलोक्कं, कैलाशः- केलासो, कौमुदी - कोमुई, यौवनं - जौव्वणं, कौशाम्बी - कोसम्बी । (ख) व्यंजन का नियम ७. पद के मध्य स्थित अथवा अनादि और असंयुक्त क-ग-च-ज-त-दप-य-व प्राकृत में प्रायशः लोप होता है । यथा - ( क ) - तीर्थकर : तित्थयरो, लोकः- लोओ, शकटं-सअडं । (ग) नगः-नओ, नगरं नयरं, मृगांक:- मयंको । (च) शची - सई, काचगृह:- कयग्गहो, (ज) रजतं - रययं प्रजापतिः - पयावई, गजः- गओ । (त) वितानं - विआणं, रसातलं- रसाअलं, जाति:- जाई । (द) गदा-गया, मदनः-मयणो । (प) रिपुः- रिऊ, सुपुरुषः- सुउरिसो, (य) दयालुःदआलू, दयालू, नयनं-नअणं- नयणं । (व) लावण्यम्-लायण्णं विबुधः- विउहो, वडवानलः-वलयाणलो । ८. पद के मध्यस्थित अथवा अनादि और असंयुक्त ख-घ-थ-ध-भ प्राकृत में ह होता है । यथा - (ख) शाखा- साहा, मुखम् - मुहं, मेखला - मेहला, लिखतिलिहइ (ध) मेघ:- मेहो, जघनम् - जहणं, माघ : - माहो, (थ) नाथ:-नाहो, मिथुनम् - मिहुणं, कथयति - कहेइ । (ध) साधु :- साहू, बाधः-वाहो, बधिरःबहिरो (फ) मुक्ताफलम्-मुक्ताहलं । (भ) नभ: - नहं, स्वभावः-सहावो, शोभतेसोहइ | For Private and Personal Use Only ९. पद के मध्यस्थित अथवा अनादि और असंयुक्त 'ट' को 'ड' हो जाता है । यथा - नटः-नडो, भटः-भडो, घट:- घडो, घटते- घडइ ।

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