Book Title: Prakrit Vidya 2003 01 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 6
________________ मंगलाचरण मन्दालसा स्तोत्र -आचार्य शुभचन्द्र सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमाया परिवर्जितोऽसि । शरीरभिन्नस्त्यज सर्वचेष्टां मन्दालसा - वाक्यमुपास्व पुत्र ।। 1 अर्थ : मन्दालसा अपने पुत्र कुन्दकुन्द को लोरी सुनाती हुई कहती है कि हे पुत्र ! तुम सिद्ध हो, तुम बुद्ध हो, केवलज्ञानमय हो, निरंजन अर्थात् सर्व कर्ममल से रहित हो, संसार की मोह-माया से रहित हो, इस शरीर से सर्वथा भिन्न हो; अत: सभी (शारीरिक) चेष्टाओं का परित्याग करो। हे पुत्र ! मन्दालसा के वाक्य को सेवन करो अर्थात् हृदय में धारण करो। (यहाँ पर कुन्दकुन्द की माँ अपने पुत्र को जन्म से ही लोरी सुनाकर उसके शुद्धात्म-द्रव्य की ओर स्मरण कराती है, अत: यह कथन शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से है, जो उपादेय है ।) ज्ञाताऽसि दृष्टाऽसि परमात्मरूपी अखण्डरूपोऽसि गुणालयोऽसि । जितेन्द्रियस्त्वं त्यज मानमुद्रां मन्दालसा - वाक्यमुपास्व पुत्र ।। 2 ।। अर्थ :- हे पुत्र ! तुम ज्ञाता हो, दृष्टा हो, जो रूप परमात्मा का है तुम भी उसी रूप हो, अखण्ड हो, गुणों के आलय / घर हो अर्थात् अनन्त - गुणों से युक्त हो, तुम जितेन्द्रिय हो, अत: तुम मान - मुद्रा को छोड़ो। (मानव - पर्याय की प्राप्ति के समय सर्वप्रथम मानकषाय ही उदय में आती है, उस कषाय से युक्त मुद्रा को त्यागने के लिए माँ ने उपदेश दिया है।) हे पुत्र ! मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में धारण करो । शान्तोऽसि दान्तोऽसि विनाशहीन: सिद्धस्वरूपोऽसि कलंकमुक्तः । ज्योतिस्वरूपोऽसि विमुञ्च मायां मन्दालसा - वाक्यमुपास्व पुत्र ।। 3 ।। अर्थ :- माँ मन्दालसा अपने पुत्र कुन्दकुन्द को उसके स्वरूप का बोध कराती हुई उपदेश करती है कि हे पुत्र ! तुम शान्त हो अर्थात राग-द्वेष से रहित हो, तुम इन्द्रियों का दमन करनेवाले स्वरूप हो, आत्मस्वरूपी होने के कारण अविनाशी हो, सिद्ध-स्वरूपी हो. कर्मरूपी कलंक से रहित हो, अखण्ड केवलज्ञानरूपी ज्योति स्वरूप हो, अतः हे पुत्र ! प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2003 (संयुक्तांक ) 104Page Navigation
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