Book Title: Prakarana Ratnakar Part 2
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ अध्यात्ममतपरीदा. ३०५ - व्या:- आवश्यक नियुक्तिनेविषे प्रतिनो प्रशस्त उदय कह्यो , तथा दिगं बरना प्रवचनसारनामक ग्रंथमां पण “ पुणफला अरिहंता" इत्यादिक वचनो कह्यांडे, एवी रीते असुखना प्रतिपद वचनथी केवतीने सुखनो विपाक .॥७६॥ __ अ० कोई आशंका करे के, जे कारण माटे सुख विपाक , तेथीज फुःखवि पाक नयी ? तेनुं समाधान करे. ॥ ७६ ॥ तत्तसुत्तनाणा एकारसदा परीसहा य जिणे ॥तेद विउहतहाइ खश्अस्स सहस्स पडिकलं ॥ ७ ॥ व्या:- अमारा श्रीनगवतीसूत्रनेविषे केवलीने अग्यार परीसह करावे. तद्यथा “ एकविहबंधगस्सणं ते सजोगि नवा केवलिस्त का परीसहा पहा त्ता ? गोयमा, एकारस परीसहा परमत्ता, व पुणवेण तित्ते" तथा बेहुने “ए कादश जिने" एवीरीते श्रीतत्वार्थसूत्रमा अग्यार परीसह कह्याने; एणेकरी के वलीने कुधा तथातृषा प्राप्त थश्बतां दायिक सुंखनी हानि थती नथ एवं ठरेले अहीं उक्त " एकादशजिने ” ए सूत्रनो अर्थ केटलाएक पोतानुं मत पोषण कर वाना हेतुथी एवं करेले के 'एकेनाधिकानदश” एटले एकअधिक दश न थाय; अर्थात् अग्यार परीसह नही. ए अपव्याख्यान जाणवं, केमके, एवो समास सं' नवे नही. वली केटलाएक सर्वार्थसिक्षिप्रमुख “नसंति" एवं बाहेरथी वाक्य लिये, तेतो जाणे पोतार्नु उत्सूत्रनाषणज प्रगट करतो होयनी ! परंतु तेथोए यावो विचार करवो जोये के, परीसहनास्वामी चिंताना अधिकारनेविषे प्रसिह बतां तेनो अनाव केम थशे ! जे धनरहित होय ते धननो स्वामी कहेवाय नही. वली केटलाएक थावीरीते व्याख्यान करेले के, केवलीने वेदनीयकर्म होवाथी कारण कार्योपचारेकरीने अग्यार परीसह कह्या ए व्याख्यान पण नदीमां बूडतां घास नो याश्रय लेवाजेQ , केमके, स्वामित्वचिंताए उपचार संजवे नही, जो उप चार मानिये तो बता मोहनीयकर्मना होवाथी नपशांत मोहगुणस्थानकनेविषे पण बावीस परीसह कह्या जोशे, ए प्रकारे करी सूत्रनां घणां अपव्याख्यानो नो त्याग करीने परमार्थनो विचार करवो जोये. ॥ ७ ॥ अस्साय वेयणिऊं बुदतहाईण कारणं जाण ॥ पऊ त्तिसतित्तउदय जलिअंतरजलादित्ताणं ॥ ७ ॥ व्या:- आहार पर्याप्तिनामकर्म तथा असाता वेदनीयकर्म ए बन्नेना उदय %3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364