Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 35
________________ धर्म परम्परा में समय-समय पर परिवर्तन होते आये हैं, सही के साथ कुछ गलत विचार भी आये हैं और यथावसर उनका परिष्कार भी हुआ है। इसी दिशा में जैन आगमों की मान्यता के सम्बन्ध में मतभेदों की एक लंबी परम्परा भी मेरे समक्ष खड़ी है। उसमें कब, क्या, कितने परिवर्तन हुए, कितना स्वीकारा गया और नकारा गया, इसका भी कुछ इतिहास हमारे सामने आज विद्यमान है। नन्दी सूत्र, जिसे कि आप आगम मानते हैं और भगवान् के कहे हुये शास्त्रों की कोटि में गिनते हैं, वह भगवान् महावीर से काफी समय बाद की संकलना है। उसके लेखक या संकलन कर्ता आचार्य देववाचक थे। भगवान् महावीर और आचार्य देववाचक के बीच के सुदीर्घ काल में देश में कितने बड़े-बड़े परिवर्तन आये, कितने भयंकर दर्भिक्ष पडे, राजसत्ता में कितनी क्रांतियाँ और परिवर्तन हुए, धार्मिक परंपराओं में कितनी तेजी से परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुए, इसकी एक लंबी कहानी है। किन्तु हम उस एक हजार वर्ष पश्चात् संकलित सूत्र को और उसमें उल्लिखित सभी शास्त्रों को भगवान् महावीर की वाणी स्वीकार करते हैं। यह भी माना जाता है कि उपांगों की संकलना महावीर के बहुत बाद में हुई, और प्रज्ञापना जैसे विशाल ग्रंथ के रचयिता भी एक विद्वान आचार्य भगवान् महावीर के बहुत बाद हुए हैं। दशवैकालिक, और अनुयोगद्वार सूत्र भी क्रमशः आचार्य शय्यंभव और आर्यरक्षित की रचना सिद्ध हो चुके हैं। यद्यपि इन आगमों में बहुत कुछ अंश जीवनस्पर्शी है, पर भगवान् महावीर से उनका सीधा संबंध नहीं, यह निश्चत है। मेरे बहुत से साथी इन उत्तरकालीन संकलनाओं को इसलिए प्रमाण मानते हैं कि इनका नामोल्लेख अंग साहित्य में हुआ है और अंग सूत्रों का सीध । सम्बन्ध महावीर से जुड़ा हुआ है। मैं समझता हूँ कि यह तर्क सत्य स्थिति को अपदस्थ नहीं कर सकता, हकीकत को बदल नहीं सकता। भगवती जैसे विशालकाय अंग सूत्र में महावीर के मुख से यह कहलाना कि-'जहा पण्णवणाए'-जैसा प्रज्ञापना में कहा है, किस इतिहास से संगत है? प्रज्ञापना, रायपसेणी और उववाई के उद्धरण भगवान महावीर अपने मुख से कैसे दे सकते है? जबकि उनकी संकलना बहुत बाद में हुई है? इस तर्क का समाधान दिया जाता है कि बाद के लेखकों व आचार्यों ने 20 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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