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उक्त पाठ का संक्षेप में भावार्थ यह है कि चूंकि इस समय तक गृहस्थ स्वयं अपने लिए प्रायः अपने मकानों को छत के रूप में आच्छादित कर लेते हैं, लीप लेते हैं, जल निकालने के लिए मोरी आदि ठीक कर लेते हैं, इत्यादि व्यवस्था हो जाने पर साधु को निर्दोष मकान मिल जाता है। ऐसे व्यवस्थित मकान में साध
के निमित्त से फिर आरंभ आदि कुछ नहीं करना पड़ता, अतः वहाँ पर्युषण हो सकता है। इसका अर्थ है कि यदि प्रारंभ में ही मकान एवं क्षेत्र ठीक मिल जाए, तो आषाढ़ी पूर्णिमा आदि के दिन कभी भी पाँच-पाँच दिन के क्रम से पर्युषण कर सकता है। इसीलिए उक्त प्रसंग में ही आगे कहा है कि 'अंतरा वि य से कप्पइ, नो से कप्पइ तं रयणिं उवाइणावित्तए।' अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर भादवा सुदी पंचमी तक बीच के पर्व दिनों में भी कभी पर्युषण कर सकते हैं, किन्तु भाद्रपद शुक्ला पंचमी की रात्रि को लांघ कर आगे नहीं कर सकते। आज तो प्रायः सर्वत्र पहले से ही व्यवस्थित भवन मिल जाते हैं, अतः अकारण 50 दिन तक आगे बढ़ना क्या अर्थ रखता है? अब तो आषाढ़ पूर्णिमा को वर्षावास-पर्युषण कर लेते हैं, गृहस्थ जनों को भी पहले से ही चातुर्मास करने की बात मालूम हो जाती है, फिर 50 दिन बाद सिर्फ एक वार्षिक प्रतिक्रमण के लिए, जो कि सिद्धांतानुसार वर्ष की समाप्ति पर आषाढ़ पूर्णिमा को ही कर लेना चाहिए, पुनः पर्युषण करना, कितना न्यायोचित है, कभी सोचा है इस संबंध में कुछ? प्रचलित मान्यता के पक्ष में व्यर्थ ही आधारहीन असत् कल्पनाएँ संयमी जीवन के लिए कितनी विघातक हैं, निर्मल मन से कुछ विचारना तो चाहिए। असत्य असत्य है, फिर भले ही वह सांसारिक कार्यक्षेत्र में बोला जाए, या तथाकथित श्रद्धा के नाम पर धर्म के क्षेत्र में बोला जाए। यदि गहराई से विचार किया जाए, तो सांसारिक क्षेत्र की अपेक्षा धर्म के क्षेत्र में असत्य का प्रयोग करना, अधिक भयावह है, अधिक पापवर्द्धक है।
प्राचीन आचार्य ही नहीं, अर्वाचीन आचार्य, उपाध्याय एवं अन्य विद्वान मुनि भी, पर्युषण के संबंध में यही सब कुछ कहते तथा लिखते आ रहे हैं, यद्यपि उनकी अपनी सांप्रदायिक मान्यताएँ पूर्व पक्ष से काफी बदली हुई हैं। उपाध्याय समयसुंदर ने कल्पसूत्र की अपनी कल्पलता व्याख्या में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पर्युषण करने की बात, वर्षानुकूल क्षेत्र के अभाव में ही स्वीकार की है। उन्होंने जघन्य 70 दिन का चौमास माना है। इस 70 दिन के चौमास में भी अशिव, रोग, राजा की दुष्टता, भिक्षा का अभाव आदि कारणों से अन्यत्र विहार करने का उल्लेख किया है:
118 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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