Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 198
________________ उसके पूर्व अपने अभिभावकों - माता-पिता तथा पत्नी आदि की अनुमति ले आओ। परन्तु, स्पष्ट है कि भगवान् ने भी ऐसा नहीं कहा। ज्यों वह जागृत हुआ, त्यों ही उसे एवं उसके शिष्यों को तथा अन्य विद्वानों को भी उनके शिष्यों के साथ दीक्षित कर लिया और तीर्थ की स्थापना कर दी। इतिहास की दृष्टि से आज का यह वैशाख शुक्ला एकादशी का दिन महत्त्वपूर्ण है । उसी स्मृति में हम अभी जो शास्त्र पाठ कर रहे थे - यह नन्दीसूत्र का पाठ है, जो महान् ज्योतिर्धर आचार्य श्री देववाचक की रचना है, उसमें तीर्थ की महिमा, भगवान् महावीर की महिमा और गणधरों की महिमा के गौरव गान है। भगवान् महावीर का तीर्थ इतना उदात्त एवं अद्भुत तीर्थ है कि इसमें सम्मिलित होने के पूर्व बाहर में कोई जाति, वर्ग, वर्ण आदि के घेरे में कैसा भी रहा हो, परन्तु तीर्थ में आने के बाद कोई भेद-भाव नहीं रहा - न जाति का, न वर्ग का और न वर्ण का। सब श्रमण- श्रमणी हैं, सब श्रावक-श्राविका हैं, न कोई ऊँचा है और न कोई नीचा है। परन्तु, आज हम देखते हैं कि संघ में आने के बाद भी दसे- बीसों के नाम पर संघर्ष होते हैं, ढइये - पाँचों की जाति को लेकर संघर्ष होते हैं साधुओं में भी । श्रावक वर्ग में पनप रहे जातीय भेदों को मिटाने का प्रयास होता नहीं। भगवान् महावीर के तीर्थ की उदात्त भावना के अनुरूप भ्रातृभाव की, बन्धुत्व की भावना जगाई नहीं जाती, परन्तु साधु संघ में भी उन भेदों को स्थान मिल जाता है। और अनेक बार ये जातीय भेद इतने उभर कर सामने आते रहते हैं, जो महावीर के तीर्थ के महत्त्व को कम कर रहे हैं। आज निष्क्रिय जड़ क्रिया-काण्डों के पकड़े हुए आग्रहों पर तो जोर दिया जाता है, परन्तु तीर्थ की मूल भावना की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। भगवान् महावीर का तीर्थ तो तीर्थ रहा। उसमें जाति एवं वर्ग का कोई महत्त्व नहीं था। यदि शूद्र ने पहले दीक्षा ले ली और एक श्रोत्रिय ब्राह्मण बाद में दीक्षित होता है, तो वह उसे वन्दन करेगा। एक महारानी की दासी या सम्राट दास पहले दीक्षित हो गया है और महारानी एवं सम्राट् बाद में दीक्षा ग्रहण करते हैं, तो वे उस दासी एवं दास को बिना किसी भेद-भाव के वन्दन करेंगे। इसका तात्पर्य है कि महावीर का तीर्थ समन्वय का तीर्थ है। इस दृष्टि से यह तीर्थ महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि भगवान् महावीर सर्वप्रथम सम्यक् - बोध की बात कहते हैं, सन्मति तीर्थ की स्थापना 183 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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