Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 142
________________ 44 कि पहले लिख आए हैं, काफी गड़बड़ के बाद यही लिखते हैं कि “ श्रमण भगवान् महावीर ने पर्युषण किया । " सम्यग्दर्शन की भूल समझ में आ सकती है, चूँकि उसका लेखक संस्कृत प्राकृत का अभ्यासी विद्वान् नहीं है । परन्तु मुझे तो आश्चर्य होता है, जिनवाणी के विद्वान् लेखक तथा समवायांग सूत्र के अर्थकार पूज्य श्री पर कि वे कैसे खोटा सिक्का बाजार में चला रहे हैं। क्या यही धर्मश्रद्धा की सुरक्षा का पथ है? वर्षावास शब्द और पज्जोसवेइ के साथ उसके व्याकरण सम्मत सम्बन्ध को साफ डकार जाते हैं, उसका उल्लेख तक नहीं करते। कैसे करें? वह साफ-साफ उनकी मान्यता को मूल से ही जो उखाड़ देता है। खैर ! मैं उक्त लेखको से पूछता हूँ, आप पर्युषण का वर्षावास अर्थ तो आषाढ़ पूर्णिमा को मान लेते हैं। उस वर्षावास का भादवा सुदी पंचमी से कोई सम्बन्ध नहीं है। आपकी दृष्टि में उक्त पंचमी का पर्युषण वार्षिक पर्व है, ओर इसके लिए समवायांग सूत्र के पाठ को आप उद्धृत करते हैं। मैं पूछता हूँ, आपके लेखानुसार श्रमण भगवान् महावीर ने उक्त पंचमी के दिन वर्षावास नहीं, अपितु वार्षिक पर्वरूप पर्युषण किया, तो भगवान् ने क्या पर्युषण किया? क्या भगवान् ने उस दिन, जैसा कि आप हम सब करते हैं, अपनी भूलों की, अपने चारित्र - सम्बन्ध अतिचारों की आलोचना की ? संवत्सरी प्रतिक्रमण किया? बताइए तो सही वार्षिक पर्व के रूप में क्या किया ? तीर्थंकर केवली का चारित्र निरतिचार चारित्र होता है, उनके अप्रमत्त संयम जीवन में दोष नहीं लगते, अतिचार नहीं लगते। अतः वे प्रतिक्रमण नहीं करते। कहाँ देख लिया - यह तीर्थंकर केवल ज्ञानियों के द्वारा वार्षिक पर्व का मनाना, आलोचना-प्रतिक्रमण करना ? क्या कहीं पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज की वह भूल ही तो आपको तंग नहीं कर रही है, जो उन्होंने समवायांग सूत्र के उक्त पाठ के अनुवाद में की है। उन्होंने लिखा है " श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी ने वर्षाकाल के चार मास में से एक मास और 20 दिन व्यतीत हुए पीछे व चातुर्मास के 70 दिन शेष रहते संवत्सरी प्रतिक्रमण किया । " - सम० पृ० 176 पूज्य ऋषिजी तो प्राकृत भाषा के विद्वान नहीं थे, संस्कृत टीका भी उन्होंने नहीं पढ़ी थी, और इधर प्रचलित मान्यता उनके समक्ष थी, अतः उन्होंने पर्युषण का सीधा अर्थ 'संवत्सरी प्रतिक्रमण' लिख छोड़ा। किन्तु आप तो ऐसे नहीं है। आपसे यह सब कैसे होता है? मान्यता का व्यामोह सत्य पक्ष को पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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