Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 192
________________ अशिक्षितों की संख्या कम होने के बजाय, प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। इस बढ़ती का मूल है, जनसंख्या की वृद्धि में। अभी-अभी समाचार पत्रों में सुप्रसिद्ध समाज शास्त्रियों की एक रिपोर्ट पढने को मिली है। अगले सौ वर्षों के आसपास विश्व की जनसंख्या दश खरब हो जाएगी। क्या होगा तब? भूमि तो बढ़ने से रहीं कहाँ और कैसे रहेंगे इतने लोग? क्या चूहों की तरह धरती के नीचे बिलों में रहेंगे? और, खाएंगे क्या? क्या आदमी, आदमी को खाने के लिए मजबूर हो जाएगा। मजबुरी बूरी है, वह सब करा सकती है। उसे अर्थ या अनर्थ का, भले या बुरे का कुछ अता-पता नहीं है। अतः समय रहते सावधान होने की अपेक्षा है, मानव जाति के हित-चिन्तकों को। कुछ अधिक सात्विक कहे जाने वाले लोग या धर्म, कहते हैं बढ़ती जन-संख्या को ब्रह्मचर्य के द्वारा नियंत्रण करना ही ठीक है, अन्य साधनों से नहीं। बात अपने में ठीक है। परन्तु हजारों वर्षों से धर्म परंपराएँ ब्रह्मचर्य का, इन्द्रिय संयम का उपदेश देते आ रहे है। परन्तु शून्य ही परिणाम आया है इस उपदेश का प्रत्यक्ष हमारे सामने है। अगर इसकी कुछ प्रभावकता होती, तो क्या इस तरह जनसंख्या बढ़ती? धर्मगुरु एक ओर तो मनुष्य की कामुकता को प्रतिबन्धि त करने का उपदेश देते रहे, किन्तु दूसरी ओर क्या कहते रहे यह भी पता है आपको? राजा, महाराजा, श्रेष्ठीजनों के पूर्वजन्म के पुण्य की महिमा के गुणगान में उनके सैकड़ों हजारों पत्नियाँ भी बताते रहे। जिसके पास जितनी अधिक पत्नियाँ वह उतना ही अधिक पुण्यवान ! यह दुमुही बातें क्या अर्थ रखती हैं। मनुष्य की कामवृत्ति ब्रह्मचर्य में न जाकर, इसके विरोधी कामपिपासावर्धक वर्णनों की ओर ही अग्रसर होती रही। अच्छा है ब्रह्मचर्य से, इन्द्रिय संयम से धर्म के साथ जन-संख्या वृद्धि की समस्या भी हल हो जाए। 'आम के आम गुठली के दाम।' कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु, सर्वसाधारण से अपेक्षा रखना, एक तरह का दिवा-स्वप्न ही है। अतः परिवार नियोजन के अन्य साधनों का विवेक पूर्वक उचित सीमा में प्रयोग हो, तो कोई आपत्ति नहीं। बहु-विवाह की प्रथा कहीं भी, किसी भी धर्म या जाति में हो, वह बंद होनी ही चाहिए, धर्म विशेष या जाति विशेष के नाम इस तरह की छूट रहना, राष्ट्र को बर्बाद करना है। आज की एक महती अपेक्षा : परिवार नियोजन 177 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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