Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 194
________________ 14 सन्मति प्रचार हेतु : सन्मति-तीर्थ की स्थापना - श्रमण भगवान् महावीर वैशाली का राजकुमार है। ऐश्वर्य वैभव एवं भोग-विलास के वातावरण में जीवन का शैशव एवं यौवन उभरता रहा है। इसलिए उनके वैराग्य में न दुःख की छाया रही है, न अभाव एवं पीड़ा-वेदना की कराह परिलक्षित होती है। उनके जीवन में उभरते विराग भाव में ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित रही है। मन में दुःख, दर्द और पीड़ा तो थी, परन्तु वह निज की व्यक्तिगत नहीं थी। वह थी, अन्धकार में भटक रही, ठोकरें खा रही, जन-मन की पीड़ा। धर्म के नाम पर पाखण्डों के फैल रहे अज्ञान अन्धकार में पथ-भ्रमित जनता को मार्ग नहीं मिल रहा था। श्रद्धालु-जन केवल चल रहे थे, पर न मंजिल का पता था और न मार्ग का ही। ऐसे विकट समय में वर्धमान की अन्तर्-चेतना में ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित हुई। इसलिए उनका वैराग्य ज्ञान-गर्भित वैराग्य है। जीवन के यथार्थ स्वरूप को समझ कर साधना-पथ पर गतिशील वैराग्य है। तीस वर्ष की भरी हुई तरुणाई में इन्सान की आँखें (अन्तर्चक्षु) बन्द रहती हैं, ऐसे मादक क्षणों में संसार भोग-वासना के बन्धनों में बन्धा रहता है, परन्तु यह विराट ज्योति-पुरुष भर यौवन में संसार के बन्धनों से मुक्त होकर चल पड़ा सत्य की शोध में। और जन-जन के मंगल हेतु, कल्याण हेतु रास्ता खोजना शुरु किया। साढ़े बारह वर्ष तक भयंकर निर्जन वनों में वृक्षों के नीचे आसन जमाए बैठा रहा, जहाँ दिन-रात व्याघ्र-सिंह दहाड़ते गर्जते रहते थे। पर्वत शिखरों पर और वैभारगिरि (राजगृह) की सप्तपर्णी जैसी अंधकाराछन्न गहन गुफाओं में चार-चार महीने तक निराहार-निर्जल रहकर आसन लगाकर ध्यानस्थ हो गए प्रकाश के साक्षात्कार के लिए। अन्धकार में प्रकाश की खोज, ज्योति की तलाश? हाँ, उजाले की आवश्यकता अंधेरे में ही तो है। अंधकार ही नहीं, तो प्रकाश की आवश्यकता ही क्या है? हाँ तो, श्रमण वर्धमान की, महावीर की साधना प्रकाश की, ज्योति की साधना है। उनके दिव्य शरीर की कान्ति से एक ओर अंधेरी गुफा सन्मति तीर्थ की स्थापना 179 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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