Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 161
________________ करने वाला न होना चाहिए। इस काल सीमा के बाद तो यदि योग्य वासक्षेत्र न भी मिले, तब भी वृक्ष के नीचे ही पर्युषण कर लेना चाहिए। आचार्य अभयदेव ने स्थानांग सूत्र की अपनी टीका में भी पर्युषण का यही भाव सूचित किया है। पर्युषण वर्षकल्प है, उसमें ऋतुबद्ध अर्थात् शेषकाल से सम्बन्धित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादाओं का परित्याग कर वर्षा योग्य मर्यादाओं को अपनाना चाहिए। यदि कोई विशिष्ट कारण हो तो वर्षावास का उत्कृष्ट काल छह महीने का हो सकता है, और अपवाद की स्थिति में वर्षावास का जघन्य काल भादवा सुदी छठ से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक 70 दिन का होता है। संक्षेप में उक्त भावना नीचे के टीका-पाठ में देखी जा सकती है। "पर्याया ऋतुबद्धिका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-सम्बन्धित उत्सृज्यन्ते उज्यन्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्योसवना।" __ “अथवा परिः सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्तति विनानि, उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं, निरुक्तादेव पर्युषणा। तस्याः कल्प आचारो मर्यादेत्यर्थः।" -स्थानांग टीका, दशमस्थान समवायांग सूत्र में पर्युषण से सम्बन्धित जो पाठ है, वह 70 वें समवाय में है 50 वें में नहीं। उस पाठ में कहा है कि वर्षावास के एक महीना और बीस रात्रि बीतने पर, तथा 70 दिन शेष रहने पर पर्युषण करना चाहिए, वर्षावास में स्थित रहना चाहिए। समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइक्कते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहि वासावासं पज्जोसवेइ। -समवायांग 70 समवाय समवायांग सूत्र का उक्त सूत्र अपवाद सूत्र है। पूर्वार्ध का एक महीना वीस रात्रि वाला अंश मुख्य नहीं है, अगला सत्तर दिन शेष रहने का अंश ही मुख्य है, यही कारण है कि यह सूत्र 50 वें समवाय में न देकर 70 वें समवाय में दिया है। इसका अर्थ है कि विशेष परिस्थिति में, अपवाद में वर्षावास अर्थात चातुर्मास का कम-से-कम जघन्य काल 70 दिन का है। इसी भाव को आचार्य अभयदेव ने समवायांग की टीका में “पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविध-वसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, भाद्रपद शुक्ल पचम्यां तु 146 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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