Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 189
________________ 13 आज की एक महती अपेक्षा : परिवार नियोजन आज प्रायः समग्र ज्ञात विश्व निरन्तर बढ़ती जा रही जनसंख्या से त्रस्त है। पौराणिक कथाश्रुति के अनुसार द्रौपदी के चीर की भांति जनसंख्या सिमटने में ही नहीं आ रही है। एक युग था कभी, जबकि शत पुत्रवती होने का एक आशीर्वाद था। अब तो यह अभिशाप बन कर रह गया। हर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के पास उपभोग के साधन सीमित हैं। अन्न, वस्त्र, भवन आदि कितने ही निर्मित होते जाएँ, यदि उपभोक्ताओं की संख्या अधिकाधिक बढ़ती जाए, और वह बढ़ ही रही है, तो समस्या का समाध न कैसे होगा ? प्रकृति का उत्पादन भण्डार अनन्त नहीं है, आखिर उसके शोषण की भी एक सीमा है। यही कारण है कि मनुष्य के मन की इच्छाओं की इच्छानुरूप पूर्ति नहीं हो पा रही है। भौतिक दृष्टि की प्रधानता से इच्छाएँ भी मानवीय आवश्यकताओं की रेखा को पार कर बाढ़ के कारण तूफानी नदियों की भाँति मर्यादाहीन अनर्गल गति से इधर-उधर फैलती जा रही हैं। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने मानव मन को सब-कुछ आवश्यक - अनावश्यक पाने के लिए पागल बना दिया है। संयम जैसी कोई बात नहीं है। आखिर संयम की भी एक सीमा है। भूख से बढ़कर कोई वेदना नहीं है। एक प्राचीन महर्षि ने, जो स्वयं के शिखर पर आरूढ़ थे, खुले मन से यथार्थ कथन किया है- 'खुहासमा वेयणा नत्थि' संस्कृत भाषा में भी एक उक्ति है - 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ' - भूखा आदमी कौन-सा पाप नहीं करता? वह सभी पापाचार, दुराचार, अत्याचार, अनाचार कर सकता है। उसे योग्यायोग्य का विवेक नहीं रहता। जनसंख्या बढ़ती है, तो भूखों की संख्या बढ़ेगी ही। सभी को इच्छानुरूप तो क्या जीवनरक्षानुरूप भोजन भी मिलना कठिन हो जाता है। और, उसका जो परिणाम होता है, वह हमारे सामने है। अखबारों में सुबह - सुबह क्या पढ़ते हैं? 174• प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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