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कितनी बड़ी विचार दरिद्रता?
मैं विचार करता हूँ-यह सब क्या है, क्यों है? कितना लम्बा समय गुजर गया। हम नौजवान से बूढ़े हो गए, ओर बूढ़े परलोकवासी हो गए। गंगा का अरबों टन पानी बहकर सागर में पहुँच गया। विश्व की राजनीतिक स्थितियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गई। और हम है कि जहाँ के तहाँ खड़े हैं। जहाँ के तहाँ भी नहीं, कुछ पीछे ही लौटे हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि हम कुछ विचार दरिद्र हैं, अच्छी तरह सिद्धांत और स्थिति का जायजा नहीं ले सकते! खुले मन मस्तिष्क से सोचने-समझने के हम आदी नहीं हैं। हमारा धर्म इतना दुर्बल है कि वह विरोधी विचार सुनने मात्र से घबराता है, कतराता है। जो विचार अपने ध्यान में नहीं बैठता हो तो उसका प्रतिवाद भी हो सकता है। प्रतिवाद करना बुरा नहीं, परन्तु हमारे यहाँ तो प्रतिवाद का अर्थ विचार के बदले गालियाँ देना है। इधरउधर काना-फूसी में गालियाँ दें, या अखबारों में, बात एक ही है। और इसका परिणाम होता है कि कितनी ही बार समझदार व्यक्ति सब कुछ समझकर भी सत्य के समर्थन के लिए समाज के सामने नहीं आते। चुप होकर बैठे रहते हैं-अपनी इज्जत बचाने के लिए। इतना आतंक है इन रूढ़िचुस्त महाप्रभुओं का। ध्वनिर्धक का प्रश्न क्यों अटकता रहा?
ध्वनिवर्धक का प्रश्न कुछ तो वस्तु स्थिति को न समझने के कारण अटका हुआ है, और कुछ इधर-उधर के बौखलाये हुए लोगों के आतंक के कारण। एक बात और भी है, कुछ लोगों ने इसे शुद्ध आचार का मापदण्ड ही बना लिया है। कुछ महानुभाव तो वस्तुतः प्रचलित मान्यताओं के कारण भ्रम में हैं, फलतः विद्युत् को अग्नि समझते हैं, वह भी सचित्त। और इस कारण हिंसा भय से ध्वनिवर्धक पर नहीं बोल रहे हैं। परन्तु मुझे तरस तो आता है उन लोगों पर, जो चरित्रहीन हैं। साधुता तो क्या, नैतिकता का धरातल भी जिनके पास नहीं है। वे भी ध्वनिवर्धक प्रश्न पर अपने को शुद्ध संयमी प्रमाणित करने के लिए पाँच सवारों में अपने आपको गिनाने लगते है। जब किसी बाहर की साधारण बात को शुद्धाचार का मापदण्ड घोषित कर दिया जाता है, तो प्रायः ऐसा ही होता है। इस तरह की स्थिति में ऐसे लोगों की खूब बन आती है, बड़ी सस्ती पूजा-प्रतिष्ठा मिल जाती है। ये लोग संयम की रक्षा के दर्दीले नारे लगाते हैं, और भावुक जनता को धर्म के नाम पर आसानी से बेवकूफ बनाते हैं।
92 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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