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पिण्ड, अंजनपिण्ड, योगपिण्ड, चूर्णपिण्ड, अन्तर्धानपिण्ड भोगवे अथवा अनुमोदन करे, वह भिक्षु उद्घातित चातुर्मासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है।
(१४) चतुर्दशोद्देशक-जो भिक्षु पात्र को खरीदे, खरीदावे, जो पात्र को प्रामित्यक ले, अथवा पात्र की अदला बदली करे, करावे, दूसरे से अथवा मालिक से छीनकर उसकी आज्ञा के बिना सामने लाकर दिये जाने वाले पात्र को ग्रहण करे, जो भिक्षु आवश्यकता से अधिक पात्र को ग्रहण करे, जो भिक्षु गणि के उद्देशसमुद्दश से लेकर उसे गणि को बगैर पूछे, बगैर बताये अन्य को दे दे, क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, स्थविर अथवा स्थविरा जो हाथों से अखण्ड, पैरों से अखण्ड, नाक से अखण्ड, ओष्ठों से अखण्ड हैं उन्हें दे, क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका, स्थविर अथवा स्थाविरा जिनके हस्त पादादि अखण्डित नहीं हैं और शक्ति नहीं है उनको न दे।
जो भिक्षु, कमजोर, न टिकने वाला, जल्दी नाश पाने वाला पात्र रखे और मजबूत, स्थिर, टिकाऊ, रखने योग्य पात्र को न रखे, जो भिक्षु लाक्षणिक वर्णवाले पात्र को विवर्ण बनावे, विवर्ण को लाक्षणिक वर्ण वाला बनावे ।
जो भिक्षु “मुझे नवीन पात्र नहीं मिला" यह समझकर घी से, तैल से, मक्खन से, चर्बी से उनका म्रक्षण करे "मुझे नवीन पात्र नहीं मिला” यह जानकर लोध से, कल्क से, चूर्ण से और वर्णक से उसे उबटे, "मुझे नया पात्र नहीं मिला" यह सोचकर उसको ठण्डे जल से अथवा गर्म जल से धोए, पुराना पात्र मिला इसलिए पुराने तेल से अथवा जल से उसे घिसे अथवा धोए, दुरभिगन्ध-पात्र मिला यह सोचकर तैल, शीतजल से धोए। जो भिक्षु अनन्तर पृथ्वी पर
और चलाचल स्थान में पात्र को सुखाये, धूप में रक्खे, जो भिक्षु पात्र से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल,
औषधि, बीज, त्रस जाति के जीवों को हटाये, अथवा किसी के देने पर पात्र में ले, पात्र को कोरे, कोरावे और एकदम दिया जाता ग्रहण करे, जो भिक्षु स्वज्ञातीय, अन्य ज्ञातीय, उपासक वा अनुपासक
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