________________
११४ चैत्य वन्दन करे तो पारांचित करना, क्योंकि अविधि से चैत्यवन्दन करने वाला दूसरों के मन में अश्रद्धा उत्पन्न करता है, इसलिए जो कोई हरियाली, बीज, पुष्प वा फल का पूजार्थ, महिमार्थ, या शोभार्थ संघट्ट करे, वा अन्य से संघट्ट कराये, उक्त हरितादिक छेदन करे, दूसरों से कराये, संघट्टन छेदन करने वालों का अनुमोदन करे तो इन सर्व स्थानों में गाढ अगाढ भेद से यथा संख्य, १ उपस्थापना, २ क्षपण, ३चतुर्थभक्त, ४आयंबिल, ५एकाशनक, इनिर्विकृतिक, ७प्रायश्चित्त देना।
प्रायश्चित्त प्रदान करने वाले गीतार्थ पूज्य आचार्य वर्ग से मेरा अनुरोध है कि उक्त प्रायश्चित्तों के औचित्य पर विचार करें, त्रैकालिक देव वन्दन न करने पर साधु साध्वी को फिर उपस्थापना करने का प्रायश्चित्त दान केवल अनागमिक है, बृहत् कल्प, व्यवहार, निशीथाध्ययन जैसे मौलिक प्रायश्चित्त सूत्रों में त्रैकालिक देववन्दन करने न करने की चर्चा ही नहीं है, तब प्रायश्चित्त की बात ही कैसी ? विक्रम की ग्यारहवीं शती के बाद की साधु सामाचारियों में साधुओं के लिए प्रतिदिन सात बार चैत्यवन्दन करने का विधान निश्चित हुआ है और उसके बाद श्रावकों के लिए ७-५ अथवा ३ बार चैत्यवन्दन करने नियत हुए हैं, इस स्थिति में महानिशीथोक्त प्रायश्चित्त कहां तक प्रामाणिक हो सकता है, साथ ही महानिशीथ सूत्र कितना प्राचीन हो सकता है ? उक्त प्रायश्चित्त तो एक नमूना है, सारे सप्तमाध्ययन में इसी प्रकार के प्रायश्चित्त लिखे हैं, जिनका न छेद सूत्रोक्त प्रायश्चित्तों से मेल है, न जीतव्यवहारोक्त प्रायश्चित्तों से, हमारे विचारानुसार तो यह संदर्भ न किसी सुविहित प्राचार्य की कृति हैं, न चैत्यवासी आचार्य विशेष के पुरुषार्थ का फल, किन्तु किसी संविग्न-पाक्षिक आचार्य की व्यवस्थित योजना का फल है, इसके संयोजक आचार्य कोई अच्छे विद्वान् न होते हुए भी शासनवात्सल्य से और पराकाष्ठा को पहुंची हुई तत्कालीन साधुवर्ग की शिथिलता को देखकर उन्होंने इस कृति द्वारा श्रमण वर्ग को मार्गगामी बनाने की चेष्टा की है, प्रायश्चित्तों की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org