Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana Author(s): Aruna Anand Publisher: B L Institute of IndologyPage 12
________________ यद्यपि पातञ्जल एवं जैन - दोनों परम्पराओं में योग का महत्त्व निकष पर है तथापि इस क्षेत्र में रचनात्मक कार्यों का अभाव परिलक्षित होता है। इन दर्शनों की तत्त्वमीमांसा, आचारमीमांसा आदि पर तो ढेर सारे कार्य होते रहे हैं किन्तु सर्वथा वैज्ञानिक तत्त्व 'योग' का विवेचन अस्पृष्ट प्रायः ही है। वैसे भी पातञ्जलयोग एवं जैनयोग के तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने का प्रयास बहुत कम हो पाया है, जिसकी अत्यन्त आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जैनयोग का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए आ० हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र तथा उपा० यशोविजय के योग-ग्रन्थों का गम्भीरता से अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा जैनयोगविषयक ज्ञान एकांगी होगा। इस महत्त्व को अंगीकार करते हुए ही मैंने दोनों दर्शनों के तुलनात्मक विवेचन को आधार बनाया और आचार्य हरिभद्रादि चार प्रमुख जैनाचार्यों द्वारा रचित योगग्रन्थों के आधार पर जैनयोग का पातञ्जलयोग के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप दोनों योग-परम्पराओं की परस्पर अनेक समानताएँ, विषमताएँ एवं विशिष्टताएँ प्रकाश में आईं, जो इस ग्रन्थ में प्रस्तुत हैं। प्रस्तुत कृति का शीर्षक है "पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन"। इसमें सात अध्याय हैं। "पातञ्जलयोग एवं जैनयोग-साधना तथा सम्बन्धित साहित्य" नामक प्रथम अध्याय में पातञ्जलयोगसाधना एवं जैनसाधना-पद्धति का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करते हुए दोनों-पद्धतियों का तुलनात्मक सर्वेक्षण तथा दोनों परम्पराओं से सम्बन्धित साहित्य का संक्षिप्त विवरण है। साथ ही इस ग्रन्थ में विवेचित जैनाचार्यों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके योग-ग्रन्थों का परिचय भी प्रस्तुत किया गया है। . ___ "योग का स्वरूप एवं भेद" नामक द्वितीय अध्याय में योग के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ, स्वरूप (लक्षण) एवं भेदों का पातञ्जल एवं जैनयोग-परम्परा के आधार पर तुलनात्मक विवेचन है। "योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश" नामक तृतीय अध्याय में पातञ्जलयोग एवं जैनयोग, दोनों परम्पराओं में मान्य योग के अधिकारियों, विभिन्न प्रकार के योगियों, योगाधिकारी की प्राथमिक योग्यता, उसके लिए निर्दिष्ट आवश्यक अनुष्ठान, आहार तथा गुरु की आवश्यकता आदि विषयों की चर्चा है। "योग और आचार" नामक चतर्थ अध्याय में विचार और आचार का सम्बन्ध बताते हए पातञ्जलयोग एवं जैनयोग-परम्परानुसार आचार की उपयोगिता प्रस्तुत है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समष्टि के रूप में जैन आचार के संक्षिप्त परिचयपूर्वक श्रावक और श्रमण के लिए निर्धारित आचार-नियमों का पृथक-पृथक प्रतिपादन है। इसके अतिरिक्त जैनयोग के आधार के रूप में कर्म-सिद्धान्त तथा भाग्य और पुरुषार्थ के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन है। ___"आध्यात्मिक विकासक्रम" नामक पंचम अध्याय में पातञ्जल एवं जैन, दोनों योग-परम्पराओं में स्वीकृत आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख है। जैन-परम्परा में चौदह गुणस्थान, त्रिविध आत्मा, त्रिविध उपयोग, विभिन्न दृष्टियों तथा मनःस्थितियों के माध्यम से आध्यात्मिक विकासक्रम की चर्चा है। इनके स्वरूप पर विचार करते हुए योगज आठ दृष्टियों की पतञ्जलि के आठ योगांगों से क्रमशः तुलना तथा संदर्भानुसार सप्तम योगांग में 'ध्यान' की चर्चा करते हुए जैनयोग के अनुसार ध्यान की व्याख्या की गई है। मन की विभिन्न अवस्थाओं का चित्र भी यहाँ उपस्थित है। "सिद्धि-विमर्श" नामक छठे अध्याय में पातञ्जल एवं जैन, दोनों योग-परम्पराओं में वर्णित सिद्धियों की तुलनात्मक विवेचना प्रस्तुत है। जैनयोग का सर्वांगीण विवेचन करने के पश्चात् उपसंहार के रूप में "पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य, वैषम्य एवं वैशिष्ट्य" नामक सप्तम अध्याय लिखा गया है। इस अध्याय में ऐतिहासिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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