Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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वृत्ति और सटीक योगविंशिका छपवाने के बाद भी उनका हिंदी सार पुस्तकके अन्तमे दिया गया है।सार कहनेका अभिप्राय यह है कि वह मूलका न तो अक्षरशः अनुवाद है और न अविकल भावानुवाद ही है। अविकल भावानुवाद नहीं है इम कथनसे यह न समझना कि हिदी सारमें मूल ग्रंथका असली भाव छोड दिया है, जहोतक होसका सार लिखनेमे मूल ग्रन्थके असली भावकी ओर ही खयाल रक्खा है। अपनी ओरसे कोई नई बात नही लिखी है पर मूल ग्रन्थमें जो जो बात जिस जिम् क्रमसे जितने जितने संक्षेप या विस्तारके साथ जिस जिस ढेगले कही गई है वह सब हिदी सारमें ज्यों की त्यों लानेको हमने चेष्टा नहीं की है। दोनों सार लिखनेका ढेंग भिन्न भिन्न है इसका कारण मूल ग्रंथोंका विषयभेद और रचना भेद है
पहले ही कहा गया है कि वृत्ति सत्र योग सूत्रोंके ऊपर नहीं है। उसका विषय आचार न होकर तत्वज्ञान है। उसकी भाषा साधारण संस्कृत न होकर विशिष्ट संस्कृत अर्थात् दार्शनिक परिभाषासे मिश्रित संस्कृत और वहभी नवीन न्याय परिभापाके प्रयोगसे लदी है। अतएव उसका अक्षरशः अनुवाद या अविकल भावानुवाद करनेकी अपेक्षा हमको अपनी स्वीकृत पद्धति ही अधिक लाभदायक ज्ञान पडी है।वृत्तिका सार लिखनेमे यह पद्धति रखी गई है कि सूत्र या भाष्यके जिस जिस मन्तव्यके साथ पूर्णरूपसे या अपूर्णरूपसे जैन दृष्टिके अनुसार वृत्तिकार मिल जाते हैं या विरुद्ध होते हैं उस उस मन्तव्यको उस उस स्थानमे पृथकरण पूर्वक संक्षेपमें लिखकर नीचे वृत्तिकारका संवाद या विरोध क्रमशः संक्षेपमें सूचित कर दिया है । सब जगह पूर्वपक्ष और उत्तर पक्षकी सब दलीलें सारमे नहीं दी है। सिर्फ तार लिखने में यही ध्यान रक्खा गया है कि वृत्तिकार कीस बात पर क्या कहना चाहते हैं।
माधापाले मिश्रित र अतएव उसका हमको अपनी लिख