Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi Author(s): Ratanchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं ज्ञायक भी कहते उसे, प्रगट पुकारा आप्त ।। " यदि ज्ञायक को मात्र जाननेवाला ही ग्रहण किया जाये तो वह एक ज्ञानगुणवाला हो जायेगा और ज्ञानगुण वाला कहने से भेद खड़ा हो जायेगा तथा भेद का नाम तो पर्याय है, वह त्रिकाली ध्रुव में शामिल नहीं है। हरवस्तु स्वचतुष्टय से युक्त होती है, यह एक नियम है। वस्तु उसी का नाम है जो स्वचतुष्टय से युक्त है। आ. समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में कहा भी है "सदैव सर्व को नेच्छेत, स्वरूपादि चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। " - आप्तमीमांसा : आ. समन्तभद्र ऐसा कौन है जो वस्तु को स्वचतुष्टय की अपेक्षा सत्रूप में स्वीकार नहीं करेगा ? और ऐसा कौन है, जो वस्तु को परचतुष्टय की अपेक्षा नास्ति रूप स्वीकार नहीं करेगा ? यदि कोई ऐसा है भी तो वह अपनी इस बात को सिद्ध नहीं कर पायेगा अर्थात् जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चार को स्वीकार नहीं करेगा तो उसके मतानुसार वस्तुव्यवस्था भी नहीं बनेगी। द्रव्य का अर्थ है वस्तु, क्षेत्र का अर्थ है प्रदेश, काल का अर्थ है पर्याय और भाव का अर्थ है गुण। जिसमें द्रव्य-गुण-पर्याय और प्रदेश सम्मिलित हैं, उसका नाम ही वस्तु है मोक्षमार्गप्रकाशक में लिखा है कि “अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं। यहाँ 'अनादिनिधन' कहकर काल की बात कही है। जब दृष्टि के विषय में पर्याय का निषेध किया जाता है तो हम काल नामक अंश का निषेध समझ लेते हैं, जबकि वस्तु के जो चार अंश द्रव्यक्षेत्र - काल-भाव हैं, उसमें जो कालांश हैं, वह तो दृष्टि के विषय में शामिल हैं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि काल अंश को पर्याय समझकर उसका निषेध कर दिया जाता है। आ. समन्तभद्र ने यही कहा है कि -काल के बिना अखण्ड वस्तु स्वीकार नहीं नहीं की जा सकती। समयसार के सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में भी लिखा है कि न द्रव्येन खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि । न तो मैं द्रव्य से खण्डित हूँ, न क्षेत्र से खण्डित हूँ, न काल से खण्डित हूँ और न भाव से खण्डित हूँ, मैं तो एक अखण्ड तत्त्व हूँ। यदि वस्तु में से काल खण्ड निकाल दिया जाय तो वह वस्तु काल से खण्डित हो जायेगी और फिर वह वस्तु ही नहीं रहेगी । देखो, जिसप्रकार गुणों का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय है और गुणभेद पर्यायार्थिकनय का, प्रदेशों का अभेद द्रव्यार्थिकनय का विषय और प्रदेश भेद पर्यायार्थिकनय, द्रव्य का अभेद (सामान्य) द्रव्यार्थिकनय का विषय है। और द्रव्यभेद (विशेष) पर्यायार्थिकनय का विषय है, उसीप्रकार काल (पर्यायों) का अभेद अर्थात् पर्यायों का परस्पर अनुस्यूति से रचित प्रवाह क्रम अथवा पर्यायों की निरन्तरता (नित्यता) द्रव्यार्थिकनय का विषय होता है और कालभेद अर्थात् पर्यायों का कल खण्ड पर्यायार्थिकनय का विषय बनता है। द्रव्यार्थिकय का विषय ही दृष्टि का विषय है क्योंकि द्रव्यार्थिकनय का विषय अभेद है और निर्विकल्पता का जनक है। पर्यायार्थिकनय का विषय भेद विकल्प का जनक होने से दृष्टि का विषय नहीं हो सकता। प्रवचनसार में जो ४७ नय बतायें है, उनमें विकल्पनय और अविकल्पनय है, वहाँ भी विकल्पनय का अर्थ भेद और अविकल्पनय का अर्थ अभेद ही है। ध्यान रहे, जैसी नित्यता और अनित्यता में नित्यता द्रव्य व अनित्यता पर्याय है, वैसे नित्यत्व व अनित्यत्व जो आत्मा के धर्म हैं, उनमें द्रव्य व पर्याय का भेद नहीं है, क्योंकि वे दोनों गुण हैं, धर्म हैं, अतः उनमें कोई भीPage Navigation
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