Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 27
________________ ४० पर से कुछ भी संबंध नहीं आधीन नहीं। चारित्र आदि अनन्त गुण ज्ञानादि दूसरे गुणों की सहायता से रहित है। जब एक ही द्रव्य में त्रिकाल एक साथ रहनेवाले गुण भी एक-दूसरे की सहायता रहित-स्वाधीन हैं तो फिर त्रिकाल भिन्न रहनेवाले पदार्थ एक दूसरे की सहायता करें - यह बात ही कहाँ रही ? ज्ञातव्य है कि आगम में एक ही द्रव्य के आश्रित दो गुणों में भी निमित्त-उपादान घटित होते हैं, क्योंकि एक ही द्रव्य के ये ज्ञान-चारित्र आदि गुण स्वाधीन हैं, एक गुण दूसरे के आधीन नहीं है। वस्तु के अनन्त गुणों में जिसकी मुख्यता से कथन करना हो उसे उपादान और अन्य गुणों को निमित्त कहते हैं। जैसे - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति तो समकाल में ही होती है; तथापि उनमें सम्यग्दर्शन की मुख्यता से उसे निमित्त कारण व सम्यग्ज्ञान की तत्समय की योग्यता रूप (उपादान) कारण एवं वही कार्य है। - ऐसा कहा जाता है। प्रश्न ४५ : साक्षात् कारण और परम्परा कारण किसे कहते हैं ? उत्तर : वस्तुत: तो उपादान कारण को साक्षात् कारण और निमित्त कारण को परम्परा कारण कहा जाता है। परन्तु जिन निमित्त कारणों के साथ कार्य होने का नियम तो नहीं है, फिर भी उन्हें कारण कहने का व्यवहार है, वे परम्परा कारण हैं। जैसे जैन मिथ्यादृष्टि को देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान, तत्त्वश्रद्धान, स्वपर का श्रद्धान और आत्मश्रद्धान आभास मात्र होता है। ये नियम रहित होने से सम्यक्त्व के परम्परा कारण हैं तथा इन चारों का ही सम्यक्दृष्टि के सच्चा श्रद्धान होता है अत: इन्हें सम्यक्त्व का साक्षात्कारण कहा है। प्रश्न ४६ : जिस जिनवाणी में यह लिखा है कि निमित्त उपादान में कुछ नहीं करते, उपादान के कार्य में निमित्त सर्वथा अकर्ता है; उसी द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतन्त्रता जिनवाणी में यह भी तो लिखा है कि निमित्त बिना भी उपादान में कार्य नहीं होता । उपादान के अनुकूल निमित्त होते हैं। जैसे कि - दर्शनमोह के उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम बिना ज्ञान विशेष की प्राप्ति नहीं होती। पुण्योदय के बिना अनुकूल संयोग नहीं मिलते और आयु कर्मोदय के बिना जीवन संभव नहीं तथा आयुकर्म के क्षय हुए बिना मरण नहीं होता। इतना ही नहीं, उसी जिनवाणी में यह भी लिखा है कि जब कर्मों का तीव्र उदय हो, तब पुरुषार्थ भी नहीं हो सकता। यहाँ तक कि - मिथ्यात्व कर्म के उदय में साधु ११ वें गुणस्थान जैसी निर्मल भूमिका से भी नीचे गिर कर मिथ्यात्व के प्रथम गुणस्थान में आ जाते हैं। समयसार के बंध अधिकार में तो स्पष्ट लिखा ही है - निज आयुक्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे, जब आयु हर सकते नहीं ।।२४७।। सब आयु से जीवित रहें, यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किस तरह, जब आयु दे सकते नहीं ।।२५०।। है सुखी होते दु:खी होते, कर्म से सब जीव जब । तू कर्म दे सकता न जब, सुख-दुःख दे किस भांति तब ।।२५४।। इसीप्रकार के और भी कथन आगम में यत्र-तत्र सर्वत्र विद्यमान हैं, जो परद्रव्यरूप निमित्तों के कर्तृत्व को सिद्ध करते हैं। ऐसे कथन करके आखिर आचार्य किस प्रयोजन की सिद्धि करना चाहते हैं ? यदि निमित्त पर में कुछ करते ही नहीं है तो निमित्तों के कर्तृत्व सूचक ये कथन किए ही क्यों हैं ? उत्तर : भाई ! ये सब कथन परद्रव्यों के साथ बन रहे सहज निमित्तनैमित्तिक संबंधों की अपेक्षा से किये गये हैं। यदि नयों की भाषा में कहें तो

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