Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 45
________________ ভদ द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान ७७ अपना-अपना परिणमन किया है; जोकि प्रतिसमय अपनी-अपनी तत्समय की योग्यता से होता ही रहता है। यही वस्तु का धर्म है,स्वभाव भले ही दो गुणों का परिणमन एकसाथ एकसमय में हो, पर कोई किसी के आधीन नहीं है। भिन्न-भिन्न द्रव्यों की भाँति ही एक द्रव्य के भिन्न-भिन्न गुणों का परिणमन भी पूर्ण स्वाधीन है, स्वतन्त्र है। प्रश्न ६७: जब क्षायिक सम्यक्त्व केवली-श्रुतकेवली की समीपता के बिना होता ही नहीं है तो फिर स्व-सहाय या असहाय किसप्रकार रहा पर से कुछ भी संबंध नहीं उपादान के अनुसार होता है। एक गुण दूसरे की अपेक्षा या आधीनता नहीं होती। यद्यपि ऐसा देखने में आता है कि जितना ज्ञान, उतना सुख; पूर्णकेवलज्ञान तो पूर्णसुख-अनन्तसुख; तथापि दोनों पर्यायें स्वतंत्र । ज्ञानरूप परिणमन ज्ञान गुण का और सुखरूप परिणमन सुखगुण का । ज्ञानगुण सुखरूप नहीं परिणमता और सुखगुण ज्ञानगुण रूप नहीं परिणमता। इसप्रकार की स्वतंत्रता प्रत्येक आत्मा में है। उसी स्वतंत्रता का शंखनाद यहाँ - एक ही द्रव्य के गुणों में निमित्त-उपादान घटा कर किया है। ऐसी स्वतंत्रता समझे बिना परिणति स्व-सन्मुख नहीं होती तथा परिणति स्व-सन्मुख हुए बिना जीवन में सुख-शान्ति नहीं होती। जहाँ ऐसी स्वतंत्रता है, वही सच्चा सुख है। जब अपने अन्दर विद्यमान एक गुण दूसरे गुण का सहायक नहीं होता, तो फिर जो अपने में नहीं है; ऐसे अपने से सर्वथा पृथक् अन्य बाह्य पदार्थ तो अपने सहायक होंगे ही कैसे ? ऐसी श्रद्धा से ही पूर्ण स्वाधीन धर्म प्रगट होता है और जीव को सच्चा सुख प्राप्त होता है। प्रश्न ६६: जब जाने हुए का ही श्रद्धान होता है, अनजाने के श्रद्धान को तो शशक श्रृंगवत् असत् कहा जाता है। ऐसी स्थिति में क्या श्रद्धागुण का परिणमन ज्ञान गुण के आधीन नहीं हुआ ? उत्तर : यद्यपि आत्मा के स्वसंवेदन बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता; यह बात शत-प्रतिशत सत्य है; तथापि श्रद्धागुण ज्ञानगुण के आधीन नहीं, ज्ञानगुण का मुहताज नहीं है; क्योंकि ज्ञान ने जिससमय अपना जानने का कार्य किया है; उसी समय श्रद्धा ने अपना श्रद्धान करने का काम किया है। ___एक ने दूसरे का कुछ भी सहयोग नहीं किया। जब किसी ने किसी पर कोई अनुग्रह किया ही नहीं; एक ही समय में दोनों गुणों ने स्वतंत्रपने उत्तर : केवली-श्रुतकेवली के समीप तो बहुत से सम्यक्त्वी जीव होते हैं; पर उन सबको क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता; क्योंकि उनके श्रद्धागुण में वैसी तत्समय की योग्यता का अभाव है। यदि केवली या श्रुत केवली के कारण क्षायिक सम्यग्दर्शन होता तो सबको एक जैसा क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होना चाहिए; पर ऐसा नहीं होता। दूसरी बात यह है कि - तीर्थंकर आदि को केवली-श्रुतकेवली की समीपता के बिना भी क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। जहाँ केवली-श्रुतकेवली की समीपता का नियम कहा। उसकी अपेक्षा तो यह है कि - जहाँ केवलज्ञान व श्रुतकेवलज्ञान की उत्पत्ति की योग्यता नहीं, वहाँ क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति की भी योग्यता नहीं होती। भरतक्षेत्र में जबसे केवलज्ञान एवं श्रुतकेवलज्ञान का विच्छेद हुआ, तभी से क्षायिक सम्यक्त्व का भी विच्छेद हो गया। मनुष्य के सिवाय देवों को केवली की समीपता मिलने पर भी क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता; क्योंकि उनकी उपादानगत तत्समय की योग्यता ही वैसी नहीं है।

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