Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ ८० पर से कुछ भी संबंध नहीं कारक एक साथ वर्तते हैं। आत्मा भी शुद्ध या अशुद्ध दशा में स्वयं छहों कारक रूप परिणमन करता है, दूसरे कारकों की अपेक्षा नहीं रखता। परन्तु अज्ञानी निमित्त-नैमित्तिक संबंध की आड़ में किसी न किसी रूप में पर से संबंध जोड़े रहना चाहता है, यही उसकी मूल में भूल में है, जो उसे पर से सबप्रकार के संबंध विच्छेदन करने में कारण बनी रहती है। अत: एक बार तो निर्दयतापूर्वक सभी प्रकार के संबंधों से सर्वथा विच्छेद करने की बात को अन्त:करण से स्वीकार करना ही होगा। प्रश्न ७० : 'सत्संगति कथय किनकरोतिपुसां' अर्थात् सत्संगति से क्या-क्या लाभ नहीं होते, सत्संगति से सभी तरह के लाभ होते देखे जाते हैं।' काव्य साहित्य में संगति के गुण-दोषों को एक नहीं, ऐसी अनेक लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं। जैसे कि - संगति ही गुण ऊपजै, संगति ही गुण जाय । वांस-वांस अस मीसरी, एक ही भाव विकाय ।। संगति कीजै साधु की, हरे और की व्याधि । खोटी संगति क्रूर की आठो पहर उपाधि ।। सत्संगति से जहाँ पुरुष गुणवान होते देखे जाते हैं, वही कुसंगति से अनेक दोष भी मानव में घर कर लेते हैं। इसप्रकार साहित्य जगत में सर्वत्र संगति के गुण-दोष दर्शाये गये हैं। जबकि यहाँ ऐसा कहा जाता है कि एक द्रव्य अन्य द्रव्य का कुछ भी नहीं करता। इनका परस्पर में कुछ भी संबंध नहीं है। सभी द्रव्य, गुण एवं पर्यायें पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलम्बी है। क्या ये कथन एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं प्रायोगिक प्रश्नोत्तर कैसे हो सकती है? उत्तर : जहाँ संगति के प्रभाव को दर्शाने वाले कथन उपलब्ध हैं वही उसी लोक साहित्य में संगति से सम्पूर्णतः अप्रभावित रहनेवले कथन भी मिल जाते हैं - जैसे कि - जो रहीम उत्तम प्रकृति, का कर सकत कुसंग। चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।। जन सामान्य को लिए उपदेश की शैली में कहा गया है कि पूर्वोक्त कथन भी ठीक है, परन्तु वास्तविकता का आधार तो सैद्धान्तिक कथन ही होता है। मोक्षमार्ग में भी व्यावहारिक दृष्टि से अनुकूल वातावरण की ही अपेक्षा सब रखते हैं और प्रतिकूल वातावरण से बचना चाहते हैं। अत: उपदेश भी ऐसा दिया जाता है। परन्तु जब प्रतिकूल परिस्थिति का त्याग संभव ही न हो तो द्वितीय सैद्धान्तिक (वास्तविक ) उपदेश का सहारा लेकर जीवन में शान्ति रखी जा सकती है। उत्तम प्रकृति वाले तत्त्वज्ञानियों को अपना आदर्श मानकर स्वयं उत्तम प्रकृति धारण करने का पुरुषार्थ करना ही एकमात्र सच्ची सुख-शान्ति का उपाय है। ___ हम जो संगति चुनते हैं, वह तो मात्र हमारी रुचि का द्योतक है। यदि संगति चुननेवाला व्यक्ति उत्तम प्रकृति है तो उस पर कसंगति का प्रभाव ही नहीं होगा और यदि पुरुषार्थहीन है ,अज्ञानी है तो उसकी वैसी ही तत्समय की योग्यता से प्रभावित होता है, जो वह अपनी योग्यता से ही अज्ञानी पर्यायाश्रित हैं, उसके ऊपर ही निमित्त-नैमित्तिक भाव से परद्रव्य का प्रभाव दिखाई देता है। परन्तु ध्यान रहे, मूल सिद्धान्त के ब्याज से (छल से ) यदि हम सत्संगति का आश्रय न लेकर कुसंगति में ही पड़े रहें तो निश्चय ही हम अधम प्रकृति के १.समयसार कलश २२१, पृष्ठ -१९३ जब एक द्रव्य का कर्ता दूसरा (अन्य ) द्रव्य है ही नहीं तो संगति

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