Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं वस्तुत: यह तत्समय की योग्यता ही क्रोध का समर्थ कारण है; क्योंकि यह स्वयं कार्यरूप परिणत होता है। यह काल का नियामक है। इसके होने पर कार्य नियम से होता ही है और नहीं होने पर नहीं होता। समर्थ कारण कहते ही उसे हैं, जो काल का नियामक हो । तत्समय की योग्यता ( तृतीय उपादान ) काल का नियामक है। जिस काल में जो कार्य होना है, वह उसी काल में होता है। ध्यान रहे, द्वितीय व तृतीय क्षणिक उपादानों में कारण भेद एवं वस्तु भेद नहीं है। ये दोनों एक ही हैं अथवा यों कहें कि ये दोनों एक ही पर्याय के अंश या एक ही सिक्के के दो पहलम प्रकाशक, पृष्ठ ३२५ - बाह्य निमित्त कारण निमित्त कारणों के आठ भेदों में क्रोध होने में या व्यक्ति के क्रोधित अज्ञोनों की अनीतिती का प्रतिकूल आचरणा बाह्य व प्रेरक निमित्त हैं; क्योंकि जब भी व्यक्ति को क्रोध आता तो जीव निगोद में अपने भावकलंक की प्रचुरता के कारण ही रहा है। क्रोधित होने के काल में बाहर में इच्छावान वे क्रियावान पत्र और पड़ोसी "और अपने चारित्रगुण की वैसी शुभेगति के कारण ही ऊपर आया है। दोनों शिचाहही वहां मौजूद ताप के कार्य के निकर का वहीं दाोंकि इसके अनेको अनतत हो सकता औनिवितों विनीने माने आदानौति और किसी को तमतिता का ૮૪ (अति-निमस्कारेण अनेकतातिनी कि जैक्नोति नतोकेस महती है का उदयक असें सायनिमित पारण ही अस्त्मिसमर्थक रहयोंकि उदय को कंधा के रेवान तो कर्जा वहीं उदयतीनों क्रों में से कर्मार्थी हो यही सिद्धावर स्पैदा को नहीं कि जीत को महिपर्याय को उस करे । निमित्त तो एक तरफ खड़ा है, वह कभी किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता। निमित्त तेरा शत्रु या मित्र नहीं है, तू ही विपरीत कारणों की सही समझ से लाभ से अंत को होने से पुत्र अपनी आत्मा को संसार में निमग्न करनेवाला शत्रु भी तू और सम्यक् भाव से अपनी आत्मा का कल्याण करनेवाला मित्र भी तू ही है। व पड़ौसी तो परद्रव्यरूप बाह्य निमित्त कारण हैं जो कि कार्य के सर्वथा अकर्त्ता हैं। अतः उन पर क्रोध करना व्यर्थ है। जो निमित्तोपादान कारणों के स्वरूप से अनभिज्ञ अज्ञीजन परद्रव्य पर क्रोध करते हैं, उन्हें आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नांकित कथन पर ध्यान देना चाहिए - रागजन्मनि निमित्ततां, पर द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरंति नहि मोह वाहनी, शुद्धबोध विधुरांधबुद्धयः ।।' रागादि की उत्पत्ति में जो परद्रव्य को ही निमित्त कारण मानकर उन पर राग-द्वेष करते हैं, वे कार्य-कारण के यथार्थ ज्ञान से अनभिज्ञ हैं, वे कभी भी मोहनदी को पार नहीं कर सकेंगे।' समयसार की गाथा ३७२ में भी कहा है अन्य द्रव्य या गुणों से अन्य द्रव्य या उसके गुणों की उत्पत्ति नहीं की जा सकती; इससे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि सर्वद्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। कोई किसी के सुख-दुःख का, लाभ-हानि का, जीवन-मरण का कर्ता-धर्ता नहीं है। इसी की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं ऐसी शंका नहीं करना कि जीव को परद्रव्य रागादि उत्पन्न कराते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों का उत्पाद कराने की अयोग्यता है। सर्वद्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। परद्रव्य तो निमित्त मात्र है। इस संदर्भ में प्रवचनसार अध्याय २ की निम्नांकित गाथा भी द्रष्टव्य है - णांण देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । कत्ता ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। ६८ ।। मैं शरीररूप नहीं हूँ, मैं मन-वचन-काय के उपादान कारण पुद्गलपिण्ड रूप भी नहीं हैं, मैं तीनों योगों का कर्त्ता भी नहीं हूँ अर्थात् योग मेरे कर्तृत्व के १. प्रवचनसोर गोथा १०० २. वही गाथा १०० O

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52