Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं यही सिद्ध होता है कि गालियाँ नियम से क्रोध को उत्पन्न कर ही देंगी - यह आवश्यक नहीं, किन्तु जब उपादान की जैसी योग्यता हो, तब वह अपने अनुसार ही परिणमन करता है, उस समय जो भी अनुकूल परद्रव्य का परिणमन दिखाई देता हो, उस पर निमित्त का आरोप कर दिया जाता है। अनेक व्यक्ति धनादि संग्रह एवं आरोग्य लाभादि के लिए एक जैसे निमित्त जुटाते देखे जाते हैं, तथापि सबको एक सी सफलता प्राप्त नहीं होती। कोई असफल भी हो जाता है। अत: यही सिद्ध होता है कि वस्तुतः कार्य तो उपादान के अनुसार ही होता है, निमित्तों के अनुसार नहीं। सारांश यह है कि निमित्त सदा उपेक्षणीय हैं, हेय हैं। आश्रय करने लायक नहीं है, अत: उपादेय नहीं है। 'स्व की अपेक्षा और पर की अपेक्षा से ही स्वात्मोपलब्धि संभव है। आत्मपोलब्धि का अन्य कोई उपाय नहीं है। ज्ञानस्वभावी ध्रुव उपादानस्वरूप मंगलमय निज आत्मा का आश्रय कर ही निष्कर्म अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है, निमित्तों से नहीं। ऐसा समझकर पराश्रय बुद्धि छोड़ो। उपादान-निमित्त समझने का यही प्रयोजन है। निमित्त-नैमित्तिकता : एक सहज सम्बन्ध • निमित्त-नैमित्तिकता : एक सहज सम्बन्ध वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य अपनी ही निज सहज शक्ति से ध्रुव है और अपनी ही समय-समय की तात्कालिक योग्यता से प्रति समय परिणमन कर रहा है; क्योंकि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य प्रत्येक द्रव्य का मूल स्वभाव है। वस्तु के मूल स्वभाव को परिणमन के लिए पर की अपेक्षा नहीं होती। वह पर से सर्वथा निरपेक्ष होता है। ___ हाँ, वस्तु या द्रव्य के परिणमन के काल में परवस्तु निमित्तरूप में उपस्थित अवश्य रहती है और वे निमित्त नियम से उपादान के अनुकूल ही होते हैं; परन्तु वे निमित्त उपादान में करते कुछ भी नहीं है। ऐसा ही दोनों का सहज निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। जिनागम का सम्पूर्ण कथन नयों की भाषा में निबद्ध है और नय निरपेक्ष हो ही नहीं सकते। निरपेक्ष नय तो नियम से मिथ्या ही होते हैं और सापेक्ष नय सम्यक् व सार्थक होते हैं। "निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तुतेऽअर्थकृत।" - ऐसा आगम का वचन है। इसप्रकार के कथनों में पर की अपेक्षा तो आती ही है। ऐसे कथनों को देखकर हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि - परिणमन में भी पर की अपेक्षा होती है। वस्तुत: वस्तु का परिणमन तो सर्वथा निरपेक्ष ही होता भैया भगवती दास ने इस भाव को अपनी काव्यमय भाषा में निमित्तउपादान संवाद में इसप्रकार व्यक्त किया है। “उपादान निज शक्ति है, जिय को भूल स्वभाव। है निमित्त पर योग तें, बन्यो अनादि बनाव ।।" अपने-अपने स्वचतुष्टय से अपनी-अपनी योग्यतानुसार एक ही साथ १.समयसार गाथा -८३ की टीका २.समयसार गाथा-३ की टीका १.मो.मा. प्रकाशक, पृष्ठ-२५ २. आत्मानुशासन गाथा १० की टीका ३. (प्रवचनसार गाथा २६ की टीका)

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