Book Title: Par se Kuch bhi Sambandh Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ उत्तर : भाई ! जब प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय स्वयं परिणमित हो ही रहा है। और निमित्त भी सर्वत्र सदा उपस्थित ही हैं तो मिलाने की समस्या कैसी ? ज्ञानी निमित्तों को मिलाने की व्यग्रता से परेशान नहीं होते; क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि जब उपादान में कार्य सम्पन्न होने की योग्यता आती है तब निमित्त आकाश से भी उतर आते हैं। जब जीव और पुद्गल गमन करते हैं तो उनकी गति में निमित्त धर्मद्रव्य सदा उपस्थित रहता ही है। इसीप्रकार जब वे गतिपूर्वक ठहरते हैं तो अधर्म द्रव्य निमित्त हो जाता है। यद्यपि धर्म और अधर्म दोनों द्रव्य सदा ही विद्यमान है, तथापि जब जीव और पुद्गल चलें तो धर्मद्रव्य निमित्त होता है, अधर्मद्रव्य नहीं; क्योंकि अधर्मद्रव्य स्थिति में अनुकूल है; गति में नहीं । निमित्ताधीन दृष्टि से सबसे बड़ी हानि यह होती है कि अज्ञानी जीव सुख प्राप्ति रूप कार्य की सिद्धि के लिए निमितों की ओर देखता रहता है, उन्हीं को जुटाने में सक्रिय रहता है, सहज भाव से जो निमित्त जुट जाते हैं और कुछ कार्य उसकी भावना के अनुकूल हो जाता है तो कर्तृत्व के अभिमान में फूल जाता है। इसप्रकार यह अमूल्य मनुष्यभव व्यर्थ में चला जाता है। यदि निमित्तनैमित्तिकभाव एवं उपादान-उपादेय भाव का सच्चा ज्ञान हो जावे तो दृष्टि सहज ही निमित्तों पर से हटकर स्वभावसन्मुख होती है, स्वाधीनता का भाव जाग्रत होता है, अनुकूल निमित्तों को जुटाने की व्याकुलता समाप्त हो जाती है, सहज ही आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ जाग्रत होता है। प्रश्न ५४ : कुछ लोग कहते हैं कि यदि आत्मा का हित दृष्टि के स्वभाव-सन्मुख होने में ही है तो फिर हम निमित्तनैमित्तिक के झगड़े में पड़े ही क्यों ? इन्हें न जाने तो क्या हानि है ? और इनके जानने से लाभ क्या है ? उत्तर : भाई, बात यह है कि यदि तुम इन्हें जाने बिना ही स्वभाव सन्मुख हो सकते हो तो अवश्य हो जाओ; परन्तु यदि इस महत्त्वपूर्ण विषय को १. आत्ममीमांसा कारिका १०८, आचार्य समन्तभद्र निमित्तनैमित्तिकता एक सहज सम्बन्ध ५७ जानने-समझने से जी चुराकर सीधे-स्वभाव सन्मुख होने की बातें बनाकर इनसे पीछा छुड़ाना चाहते हो तो तुम अपनी बहुत बड़ी हानि कर रहे हो। भाई ! जब तक व्यक्ति यह मानता रहता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला-बुरा कर सकता है, तब तक वह परोन्मुख ही रहता है। परोन्मुखता समाप्त करने के लिए इस बात का पक्का निर्णय होना ही चाहिए कि - एक द्रव्य का हित-अहित दूसरे के हाथ में रंचमात्र भी नहीं है। यह समझना ही उपादान - उपादेय और निमित्तनैमित्तिक संबंध का प्रयोजन है; क्योंकि निमित्त परद्रव्य ही होता है। अत: चाहे निमित्ताधीन कहो, चाहे पराधीन कहो एक ही बात है। भाई, बात यह है कि कार्योत्पत्ति में उपादान और निमित्त दोनों ही कारण होते हैं; परन्तु जिनकी दृष्टि निमित्ताधीन है, उन्हें सभी कार्य निमित्तों से ही होते दिखाई देते हैं, जबकि स्वभावदृष्टि वालों को स्पष्ट भान रहता है कि कार्यरूप तो उपादान ही परिणमित हुआ है। पर, अधिकांश जगत तो निमित्ताधीन दृष्टिवाला ही है। जिनवाणी में भी उपचार से निमित्तों को कर्त्ता कहा जाता है; अतः ध्यान रखने योग्य बात यह है कि यद्यपि निमित्तों को कर्त्ता कहा जाता है; परन्तु निमित्तों को कर्त्ता कहना मात्र व्यवहार है और निमित्त को कर्त्ता मान लेना मिथ्यात्व हैं। जिनवाणी के कथन में इस मर्म और शैली से अनभिज्ञ जगत को निमित्त ही वास्तविक कर्त्ता प्रतिभासित होता है। जबकि वस्तुस्थिति इससे भिन्न है; क्योंकि जो गाली क्रोध का निमित्त कही जाती है, उसी गाली को सुनकर किसी को क्रोध आता है, किसी को नहीं आता है एक ही व्यक्ति को उसी गाली को सुनकर कभी क्रोध आता है और कभी नहीं आता है। कभी कम आता है और कभी अधिक आता है। समधियाने में या ससुराल में गालियाँ सुनकर क्रोध न आकर आनन्द आता है। इससे

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